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सम्यक् चारित्र में व्यवहार कषाय रहित होता है और दरअसल चारित्र में ज्ञाता-दृष्टा, परमानंदी रहते हैं।
व्यवहार चारित्र में पाँचों विषयों में वृत्ति नहीं रहती, ब्रह्मचर्य रहता है। यह त्यागियों में मिलता है। दूसरा, व्यवहार में ईमानदारी, नैतिकता, न्याय की तरफ झुकाव रहता है। विवाहित हो तो एक पत्नीव्रत ही रहता है और आगे जाकर तो विषय बंद ही हो जाता है। लक्ष्मी का व्यवहार भी नहीं रहता। पाँच महाव्रत व्यवहार चारित्र में ले आते हैं।
दादाश्री का लक्ष्मी व विषय का व्यवहार सौ प्रतिशत शुद्ध था। पैसे के सामने कभी भी नहीं देखते थे, दूसरे लोग ही संभालते थे। खातेपीते, उठते-बैठते, ज्ञाता-दृष्टा रहना, वह अंतिम प्रकार का चारित्र, और वह प्राप्त करवाता है निर्वाण पद!
और एक वाक्य में दादाश्री चारित्र की परिभाषा देते हैं कि 'होम डिपार्टमेन्ट में रहना, वह चारित्र है। कभी फॉरेन में आए ही नहीं, वह खरा चारित्र'।
क्रमिक में व्यवहार चारित्र हो, तभी निश्चय चारित्र प्राप्त होता है। अक्रम विज्ञान में ऐसी किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं है।
किसी को धौल लगाई तो वह मिथ्या चारित्र कहलाता है। मारने की श्रद्धा, वह मिथ्यादर्शन और मारने का भाव हुआ, वह मिथ्या ज्ञान। मिथ्या ज्ञान मिथ्यादर्शन में, मैं चंदूभाई, इनका ससुर, इनका बाप ऐसा निश्चय से बरतता है अतः वह मिथ्या चारित्र में आता है।
पहले सम्यक् दर्शन होता है अतः आगे जाकर अपने आप सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र में आ जाता है। अत: कीमत सम्यक् दर्शन की ही है।
ज्ञान मिलने के बाद ही महात्मा रियल चारित्र के अंश देखते हैं। बाकी सब जगह व्यवहार चारित्र ही है। इस निश्चय चारित्र के बारे में तो जगत् जानता ही नहीं कि यह क्या है ?
निश्चय का ज्ञान-दर्शन और चारित्र, रूपी नहीं हैं, अरूपी हैं। लोग रूपी चारित्र ढूँढते हैं । बोलो उसका मेल कैसे बैठे? लोग तो कपड़े बदलने
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