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प्रेक्षाध्यान सिद्धान्त और प्रयोग
वाणी और मन। प्रतिक्षण ये प्रकम्पित है। ये नई ऊर्मियों को लेते हैं और पुरानी ऊर्मियों को छोड़ते हैं। हमारा आकाश-मंडल इन ऊर्मियों से ऊर्मिल है. इनके प्रकम्पनों से प्रकम्पित है। ये प्रकम्पन हमारे जीवन का संचालन करते हैं। हमारे द्वारा छोड़े हुए प्रकम्पन दूसरों को प्रभावित करते हैं। दूसरों द्वारा छोड़े हुए प्रकम्पन हमें प्रभावित करते हैं। हम संक्रमण का जीवन जीते हैं, जहां हम परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। अप्रभावित कोई नहीं है, पूर्णतः स्वतंत्र कोई नहीं है। अप्रभावित स्थिति और स्वतंत्रता अप्रकम्पन की दशा में ही प्राप्त हो सकती है। ध्यान उसका मुख्य साधन है। प्रकंपन से अप्रकंपन की ओर जाना ही ध्यान है। शरीर का अप्रकम्पन कायिक ध्यान- कायोत्सर्ग है। श्वास का अप्रकंपन श्वास-संयम है। वाणी का अप्रकंपन वाचिक ध्यान है। मन का अप्रकंपन मानसिक ध्यान है।
क्या प्रकम्पनों को रोका जा सकता है ?
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कोई भी शरीरधारी प्राणी प्रकम्पनों को सर्वथा नहीं रोक सकता है। हमारी शारीरिक चेष्टाओं का आधार पेशी-मंडल है। दो प्रकार की पेशियां होती हैं- ऐच्छिक और अनैच्छिक ऐच्छिक पेशियों को हम अपनी इच्छा के अनुसार गति दे सकते हैं। अनैच्छिक पेशियों पर हमारी इच्छा का अधिकार नहीं होता। वे अपनी चेष्टा करने में स्वायत होती हैं। हम सब शरीर को स्थिर करने का प्रयत्न करते हैं, शरीर के प्रकंपनों को रोकने का प्रयत्न करते हैं, तब हमारा प्रयत्न ऐच्छिक पेशियों की चेष्टाओं को रोकने का ही होता है। हाथ, पैर आदि को गति देना हमारी इच्छा के अधीन है, इसलिए जब हम ध्यान करना चाहते हैं, तब सबसे पहले हाथ, पैर आदि को किसी विशेष मुद्रा में स्थापित कर उनकी गति को स्थगित कर देते हैं। यह कायिक ध्यान मानसिक ध्यान की मुद्रा हो जाती है। हृदय, फुफ्फुस, आमाशय, यकृत और आंतें-इन अवयवों की चेष्ठा हमारी इच्छा के अधीन नहीं है। इसलिए हम ध्यान की स्थिर मुद्रा में बैठे होते हैं, तब भी इनका प्रकंपन चालू रहता है। मस्तिष्क और स्व-संचालित स्नायु-मंडल की क्रिया भी चालू रहती है, इसलिए शरीर को स्थिर और मन को एक ध्येय पर केन्द्रित करने पर भी इन्द्रियों के अनुभव, सुख-दुःख, सर्दी-गर्मी आदि की संवेदना होती रहती है। यह ध्यान की पहली भूमिका है।
शिथिलीकरण : मृत्यु की प्रक्रिया
कायोत्सर्ग मृत्यु की प्रक्रिया है। इसमें दो बातें घटित होती हैं- शरीर
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