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इतना शिथिल कि उसमें कोई ऐविक (Voluntary) प्रवृत्ति नहीं होती। श्वास इतना मंद कि उसके पंदन अत्यन्त हल हो जाते हैं। लगता है श्वास बन्द हो गया। जब किसी व्यक्ति को जीवित होते हुए भी मृत होने की अनुभूति होती है. तब कायोत्सर्ग घटित होता है। भेदविज्ञान की साधना
कायोत्सर्ग भेद-विज्ञान की साधना है-शरीर और चैतन्य का भेद, आकांक्षा और चैतन्य का भेद, प्रमाद और चैतन्य का भेद, उत्तेजना और चैतन्य का भेद। शरीर, इच्छा, नींद, प्रमाद और आवेग से भिन्न जो है, वह चैतन्य है।
कायोत्सर्ग में सबसे पहले होगा-ऐच्छिक संचलनों (Voluntary Movements) का संयम-हाथों का संयम, पैरों का संयम, वाणी का संयम और इन्द्रियों का संयम।
जब तक ऐच्छिक संचलनों को संपूर्ण रूप में सुसंयमित नहीं किया जाएगा, तब तक कायोत्सर्ग प्रारम्भ नहीं हो सकता। शरीर की स्थूल (ऐच्छिक संचलनों) की चंचलता को समाप्त करने के बाद सूक्ष्म क्रियाओं की चंचलता को मिटानी होगी। शरीर की सारी चंचलता प्राण-ऊर्जा और मन की चंचलता है। यदि प्राण की धारा और मन की धारा चैतन्य की ओर प्रवाहित होने लग जाती है, तो शरीर शांत हो जाता है, क्योंकि चंचलता पैदा करने वाली प्राण की ऊर्जा और मन की गति उसे प्राप्त नहीं हो रही है। जब शरीर शांत और स्थिर हो जाता है, तब उसका उत्सर्ग हो जाता है और पूरा कायोत्सर्ग सधता है। विसर्जन : आत्म-दर्शन की प्रक्रिया
शरीर का शिथिलीकरण ही विसर्जन नहीं है। विसर्जन का अर्थ है-शरीर और चैतन्य के पृथक्त्व का स्पष्ट अनुभव। यह लगने लगे कि शरीर भिन्न है और चैतन्य भिन्न है-पिंजड़ा भिन्न है और पंछी पिंजड़े से भिन्न है--मुक्त है।
जब कायोत्सर्ग की स्थिति प्राप्त होती है, तब जानने की स्थिति प्राप्त होती है। कायोत्सर्ग आत्मा तक पहुंचने का द्वार है। आत्मा की झलक मिलती है, तो कायोत्सर्ग अपने आप सध जाता है। अध्यात्म का अर्थ है-अपने अस्तित्व की उपलब्धि-ज्ञाता-द्रष्टाभाव की उपलब्धि ।
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