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प्रेक्षाध्यान आधार और स्वरूप लेश्या-ध्यान
'लेश्या' जैन दर्शन का परिभाषिक शब्द है, जिसका अर्थ है-विशिष्ट रंगवाले पुदगल द्रव्य (Matter) के संसर्ग से उत्पन्न होने वाला जीव का परिणाम या चेतना का स्तर । कषाय की तरंगें और कषाय की शुद्धि होने पर आने वाली चैतन्य की तरंगें-इन सब तरंगों को भाव के रूप में निर्माण करना और उन्हें विचार, कर्म और क्रिया तक पहुंचा देना-यह लेश्या का काम है। लेश्या ही सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर के बीच सम्पर्क-सूत्र है।
लेश्या एक ऐसा चैतन्य-स्तर है, जहां पहुंचने पर व्यक्तित्व का रूपान्तरण घटित होता है। लेश्याएं अच्छी होंगी, तो व्यक्तित्व बदल जाएगा। लेश्याएं बुरी होंगी, तो व्यक्तित्व बदल जाएगा। दोनों ओर बदलेगा, रूपान्तरण घटित होगा। प्रश्न होता है कि वहां तक हम कैसे पहुंचें। हमें रंग का सहारा लेना होगा। रंग हमारे व्यक्तित्व को बहुत प्रभावित करते हैं। रंग स्थूल व्यक्तित्व, सूक्ष्म व्यक्तित्व, तैजस शरीर और लेश्या-तंत्र को भी प्रभावित करते हैं। यदि हम रंगों की क्रियाओं और उनके मनोवैज्ञानिक प्रभावों को समझ लेते हैं, तो व्यक्तित्व के रूपान्तरण में हमें बड़ा सहयोग मिल सकता है।
लेश्या के दो भेद हैं-द्रव्य-लेश्या और भाव-लेश्या-पौद्गलिक (Physical) लेश्या और आत्मिक-लेश्या। वह निरन्तर बदलती रहती है। लेश्या प्राणी के आभामंडल (Aura) का नियामक तत्त्व है। ओरा में कभी काला, कभी लाल, कभी पीला, कभी नीला और कभी सफेद रंग उभर आता है। भावों के अनुरूप रंग बदलते रहते हैं।
लेश्या के छह प्रकार हैं-कृष्ण, नील, कापोत, तैजस्, पद्म और शुक्ल । इनमें प्रथम तीन अशुभ हैं और अन्तिम तीन शुभ हैं।
हमारी वृत्तियां, भाव या आदतें-इन सबको उत्पन्न करने वाला सशक्त तन्त्र है-लेश्या-तन्त्र। बुरी आदतों को उत्पन्न करने वाला सशक्त तन्त्र हैं-कृष्ण-लेश्या, नील-लेश्या और कापोत-लेश्या । क्रूरता, हिंसा, कपट, प्रवंचना, प्रमाद, आलस्य आदि जितने दोष हैं, ये सब इन तीन लेश्याओं से उत्पन्न होते हैं।
लेश्या-ध्यान के द्वारा ये तीनों लेश्याएं बदल जाती हैं। कृष्ण-लेश्या शुद्ध होते-होते नील-लेश्या, नील-लेश्या कापोत-लेश्या और कापोत-लेश्या तेजो-लेश्या बन जाती है। तेजो-लेश्या का रंग है-बाल सूर्य जैसा और रंग का मनोविज्ञान बताता है कि अध्यात्म की यात्रा लाल रंग से शुरू होती है।
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