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प्रक्षाध्यान आधार और स्वरूप इसीलिए विज्ञान में एक शब्द का प्रयोग हुआ है-न्यूरो-एण्डोक्राइन सिस्टम । इसका अर्थ है ग्रथि-तंत्र और नाड़ी-तंत्र का संयुक्त कार्य-तंत्र । यह संयुक्त-तंत्र 'अर्धचतन मन का एक भाग है। यह मस्तिष्क को भी प्रभावित करता है अर्थात् मस्तिष्क से भी अधिक मूल्यवान है। यदि इसे सही साधनों के द्वारा सतुलित करते हैं, तो सभी अनिष्ट भावनाओं से मुक्ति मिलती है।
अन्त स्रावी ग्रंथियों में नीचे की ग्रंथियां-अधिवृक्क ग्रंथियां (एड्रीनल) और जनन-ग्रंथियां (गोनाड्स)-ये वृत्तियां उत्पन्न होने का स्थान है। काम-वासना का स्थान है-जनन-ग्रंथियां (गोनाड्स) और भय, आवेग तथा बुरे भाव उत्पन्न होने का स्थान है-एड्रीनल-ग्रथियां। योगशास्त्र की भाषा में इन्हें मणिपूर चक्र (तैजस-केन्द्र) और स्वाधिष्ठान चक्र (स्वास्थ्य केन्द्र) कहा जाता है। क्रूरता, वैर, मूर्छा आदि स्वास्थ्य केन्द्र में उत्पन्न होते हैं, वहां तृष्णा, ईर्ष्या, भय, कषाय और विषाद तैजस-केन्द्र में जन्म लेते हैं।
जब हमारा मन-हमारे विचार-नाभि से नीचे के भाग में शक्ति केन्द्र तक दौड़ते रहते हैं, तब बुरी वृत्तियां उभरती हैं। बाद में आदत बन जाती है।
क्रोध, कलह, ईर्ष्या, भय, द्वेष आदि के कारण ये ग्रंथियां विकृत बनती है। इन आवेगों से सबसे ज्यादा प्रभावित होती है-एड्रीनल ग्रंथि । जब ये अनिष्ट भावनाएं जागती हैं, तब एड्रीनल ग्रंथि को अतिरिक्त काम करना पड़ता है। और-और ग्रन्थियां भी अतिश्रम से थक कर शिथिल हो जाती हैं। ग्रंथियों की शक्ति क्षीण हो जाती है। परिणाम-स्वरूप शारीरिक और मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है। इसलिए यह आवश्यक है कि हम इन आवेगों और भावनाओं पर नियंत्रण करें। आवेगों को समझदारी से समेटें तथा ग्रन्थियों पर अधिक भार न आने दें। इसका उपाय है-चैतन्य-केन्द्र-प्रेक्षा।
श्वास-प्रेक्षा, शरीर-प्रेक्षा और चैतन्य-केन्द्रों की प्रेक्षा-ये सब ग्रंथियों को सक्रिय और संतुलित करने के साधन हैं। हम चैतन्य-केन्द्रों (ग्रंथियों) पर ध्यान करें, वे सक्रिय होंगे।
ज्यों-ज्यों हमारा ध्यान हृदय (आनन्द-केन्द्र) के ऊपर के चैतन्य-केन्द्रों पर अधिक केन्द्रित होगा, त्यों-त्यों वे अधिक सक्रिय होते जाएंगे। उनकी सक्रियता से भय समाप्त होगा, आवेग समाप्त होंगे और अनिष्ट भावनाएं समाप्त हो जाएंगी। एक नया आयाम खुलेगा। नया आनन्द, नई स्फूर्ति
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