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प्रेक्षाध्यान सिद्धान्त और प्रयोग बाहर जो अभिराम है, भीतर कैसा रूप। राग-द्वेष-उपरत बनो, देखो आत्म-स्वरूप।। कायिक प्रेक्षा-ध्यान है, सहज सरल सदुपाय। केन्द्र-जागरण मार्ग में इसकी अनुपम दाय।। प्रेक्षा का उद्देश्य है, समता का अभ्यास। पल-पल नियमितता सधे, आए नया प्रकाश।।
चैतन्य केन्द्र-प्रेक्षा
प्रेक्षा ध्यान की साधना का ध्येय है-चित्त की निर्मलता। चित्त को निर्मल बनाने के लिए हमारी वृत्तियों, भावों या आदतों को विशुद्ध करने के लिए पहले यह समझना जरूरी है कि अशुद्धि कहां जन्म लेती है और कहा प्रकट होती है। यदि हम उस तंत्र को ठीक समझ लेते हैं, तो उसे शुद्ध करने की बात में बड़ी सुविधा हो जाती है। हम योगशास्त्र की दृष्टि
और वर्तमान में शरीर-शास्त्र की दृष्टि-इन दोनों दृष्टिकोण से इस पर विचार करें।
___ वर्तमान विज्ञान की दृष्टि के अनुसार हमारे शरीर में दो प्रकार की ग्रन्थिया हैं-वाहिनी-युक्त एवं वाहिनी-रहित (Ductless)। ये वाहिनी-रहित ग्रंथियां अन्त स्रावी होती हैं। इन्हें ‘एण्डोक्राइन ग्लैण्ड्स' कहा जाता है। पीनियल, पिच्यूटरी, थाइरॉयड, पेराथाइरॉयड थाइमस, एड्रीनल और गोनाड्स ये सभी अन्त स्रावी ग्रन्थिया हैं। इसके स्राव हार्मोन कहलाते हैं। हमारी शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक प्रवृत्तियों का संचालन इस ग्रथियों के द्वारा उत्पन्न स्रावों (हार्मोनों) के माध्यम से होता है। हमारी सभी चैतन्य क्रियाओं का संचालन इस प्रथि-तंत्र के द्वारा होता है। अत उन ग्रंथियों को चैतन्य केन्द्र की संज्ञा दी गई है।
___ मनुष्य की जितनी आदतें बनती हैं, उनका मूल उद्गम स्थल है-ग्रन्थि-तत्र। हमारे शरीर के दो नियामक तन्त्र हैं-एक है नाडीतत्र (Nervous system) और दूसरा है ग्रथि-तन्त्र। नाडी-तंत्र में हमारी सारी वृत्तिया अभिव्यक्त होती हैं, अनुभव में आती हैं और फिर व्यवहार में उतरती हैं। व्यवहार अनुभव या अभिव्यक्तीकरण-ये सब नाडी-तंत्र के काम है, किंतु आदतों का जन्म, आदतों की उत्पत्ति ग्रंथि-तंत्र में होती है। जी हमारी अन्त स्रावी ग्रंथिया हैं, उनमें आदतें जन्म लेती हैं। वे आदत मस्तिष्क के पास पहचती हैं, अभिव्यक्त होती हैं और व्यवहार में उतरती है।
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