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अनुप्रेक्षा के द्वारा व्यक्ति पीड़ा-शामक रसायन को भीतर ही पैदा कर पीड़ा को सहन कर सकता है।
साधना के क्षेत्र में एक उपाय खोजा गया जिससे बीमारी की अवस्था में भी आदमी शांत रह सकता है, समता में रह सकता है और सुख का अनुभव कर सकता है। इधर पीड़ा और उधर वह सुख अनुभव करे, यह एक बहुत विचित्र खोज है। साधना के प्रयोग से रोगी भय, चिंता और तनाव से मुक्त हो सकता है। अनुप्रेक्षा के प्रयोग से व्यक्ति अभय का विकास करे, चिंतामुक्त रहे तो पीड़ा पांच प्रतिशत जितनी भी अनुभव नहीं होगी। भय और चिंता के साथ पीड़ा बढ़ जाती है और अभय एवं निश्चितता की स्थिति में पीड़ा कम हो जाती है। हमारी भावात्मक और मानसिक स्थितियां पीड़ा के होने और न होने के हेतुभूत बनती हैं। अनुप्रेक्षा की निष्पत्ति है-अभय का विकास करना और चिंता एवं तनाव से मुक्त होना।
भावना के प्रयोग से आदमी में परिवर्तन आ जाता है। भावना बदली और आदमी बदल जाता है, क्योंकि भावना के साथ हमारे रसायन बदलते हैं। उसमें विश्वास और आस्था की शक्ति बड़ा काम करती है। न जाने कितने लोग संतों के पैरों की धूलि लेकर भयंकर बीमारियों से मुक्त हो जाते हैं। तो क्या यह धूलि का चमत्कार है ? नहीं, यह भावना का चमत्कार है, विश्वास और आस्था की शक्ति का चमत्कार है। ऑटो-सजेशन (भावना) के प्रयोग के द्वारा आस्था और विश्वास की शक्ति को काम में लिया जा सकता है और रासायनिक परिवर्तनों के द्वारा बीमारियों का शमन किया जा सकता है तथा उन्हें नष्ट भी किया जा सकता है। आंतरिक रसायनों को बनाने की और बदलने की प्रक्रिया एक प्रकार से आध्यात्मिक चिकित्सा की प्रक्रिया है।
प्रेक्षा और अन्प्रेक्षा-इन दोनों की समन्वित साधना व्यक्ति को आधि, व्याधि और उपाधि से मुक्ति दिला सकती है। प्रेक्षा के प्रयोग से पता चलता है कि स्थिति क्या है। जैसे-जैसे देखने का अभ्यास बढ़ता है, पूरे शरीर में होने वाले प्राण के प्रकंपनों को जानने का व अनुभव करने का अभ्यास बढ़ता है। उसे पता चलता है, शरीर के कौन-से तन्त्र और कौन-से अवयव में गड़बड़ी है। फिर भावना-प्रयोग से उन तन्त्र या अवयव की प्रक्रिया में सुधार किया जा सकता है। और व्यक्ति व्याधि से मुक्त हो सकता है।
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