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अनुप्रेक्षा
१५६ विचय ध्यान के द्वारा यह जाना जा सकता है कि शक्ति-जागरण होने पर किस प्रकार की अनुप्रेक्षाएं करनी चाहिए। जब अनुप्रेक्षाओं का सहारा लिया जाता है, तब कोई कठिनाई नहीं होती, साधक अपनी शक्ति का संतुलन बनाए रखता है। तात्पर्य है-हम अपनी पूर्व धारणाओं और मान्यताओं को एक बार निकाल दें और फिर जो परम सत्य है, उसका अनुभव करें। प्रेक्षाध्यान साधना-पद्धति में अनुप्रेक्षा का अभ्यास इसलिए किया जाता है कि हम रूढ़ियों, संस्कारों और धारणाओं को छोड़कर सचाई को देखना सीख सकें। अनुप्रेक्षा का सिद्धान्त यथार्थ में सत्य के दर्शन का सिद्धान्त है, सत्य के लिए पूर्णरूपेण समर्पित हो जाएं-यह है अनुप्रेक्षा।
__ भगवान् महावीर ने सचाई का जीवन जीने के लिए (भ्रांति को मिटाने के लिए) अनुप्रेक्षाओं का बोध दिया। अनुप्रेक्षाएं भ्रांति के चक्र को तोड़ने वाली हैं। जो व्यक्ति अनुप्रेक्षा नहीं करता, उसकी भ्रांति सघन होती चली जाती है। किन्तु अनुप्रेक्षा की तेज धार चक्र को बढ़ाने नहीं देती।
बारह अनुप्रेक्षाओं में एक अनुप्रेक्षा है-अकेलेपन की अनुभूति । व्यवहार की भाषा में “मैं अकेला हूं" ऐसा नहीं कहा जा सकता। मेरी मां, मेरा भाई, मेरा परिवार, मेरा धन, मेरा समाज, मेरा राष्ट्र न जाने सम्बन्धों की श्रृंखला कितनी व्यापक बन जाती है ? न जाने आदमी कहां-कहां से जुड़ा हुआ है व्यवहार में आदमी फैल जाती है। आदमी सैकड़ों-सैकड़ों धागों से बंधा हुआ है। वह इतना जकड़ा हुआ है कि समाज और व्यवहार के क्षेत्र में उसे कहीं भी अकेलेपन का अनुभव नहीं होता। व्यवहार की बात तो ठीक है, किन्तु वह अन्तिम सच्चाई नहीं है। हम व्यवहार को व्यवहार के जीवन तक ही रहने दें और सच्चाई का जीवन भी साथ में जीएं। जो आदमी कोरा व्यवहार का जीवन जीता है, वह अपने लिए सदा सिरदर्द पैदा करता है। सिरदर्द को वही मिटा सकता है, जो व्यवहार के साथ सच्चाई का जीवन भी जीता है।
हमें दोनों प्रकार का जीवन जीना चाहिए। व्यवहार का जीवन इसलिए कि हम उनके बिना अपनी आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर सकते, अपने लिए जीने का साधन नहीं जुटा सकते, न कोई रोटी परोसने वाली मिलेगी, न पानी पिलाने वाला मिलेगा, न कोई सेवा-चाकरी करने वाला मिलेगा, न कोई देने वाला और न कोई लेने वाला। इसलिए व्यवहार का जीवन जीना, सामाजिक जीवन जीना हमारे लिए बहुत जरूरी है।
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