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प्रक्षाध्यान : सिद्धान्त और प्रयोग किन्तु दूसरी ओर यदि हम सच्चाई का जीवन नहीं जीते हैं तो र व्यवहार और वह समाज हमारे लिए सिरदर्द पैदा कर देता है। व्यवहार का जीवन जीते हुए सच्चाई के जीवन की पृष्ठभूमि बनाए रखना अपेक्षित है। आगे व्यवहार रहे, और पृष्ठभूमि में सच्चाई रहे। दोनों साथ-साथ चले. तो हमारे जीवन की यात्रा ठीक चलेगी और सिरदर्द भी पैदा नहीं होगा।
परिवार, समाज आदि बनाना व्यक्ति के लिए जरूरी है, किन्त जो व्यक्ति इनको अन्तिम सच्चाई मान कर यह मान लेता है कि मेरा त्राण, मेरी सुरक्षा कहीं है, तो ये परिवार आदि हैं, तो एक दिन वह स्वयं अनुभव करता है कि वह धोखे में था, और व्यक्ति इस सच्चाई को बराबर मानता रहता है कि सुविधा के लिए परिवार है, समाज है, किन्तु अन्तिम सच्चाई यह है कि वस्तुतः “मैं अकेला हूं। ऐसे व्यक्ति को कभी धोखा नहीं होता।
वास्तविकता यह है कि धोखा देने वाला कोई और नहीं होता। व्यक्ति अपने आपको ही धोखा देता है। क्योंकि वह झूठ को पालता है, सत्य को अस्वीकार करता है। सच्चाई को बराबर ध्यान में रखने वाला कभी धोखा नहीं खाता। इसलिए हम एकत्व अनुप्रेक्षा के प्रयोग के द्वारा इस सत्य का अनुभव करें कि “मैं अकेला हूं, मेरा दूसरा कोई नहीं है, न मैं किसी का हूं और न कोई मेरा है।"
व्यवहार के धरातल पर हमने सत्य की हत्या की है। यदि हम सत्य को स्वीकार कर चलते कि व्यक्तियों का जुड़ना, परिवार और समाज का बनना मात्र एक "संयोग” है, किन्तु अन्तिम सच्चाई नहीं है। यदि हम दोनों सच्चाइयों को सामने रखकर चलें कि “संयोग” और “संबंध" भी एक सीमा में यथार्थ है और “वियोग” तथा “अकेलापन” भी एक वास्तविकता है, तो समस्या उलझती नहीं। “संयोग” और “संबंध"-ये व्यावहारिक धरातल की सच्चाइयां हैं, परन्तु इस अटपटे तथ्य को समझना या जानना अनुप्रेक्षा के अभ्यास के बिना नहीं हो सकता। जब साधक एकत्व अनुप्रेक्षा का अनुचिंतन और अनुभव करता है, और जब यह अनुभव गहरा होता चलता है, तब यह सच्चाई प्रत्यक्ष हो जाती है कि “मैं अकेला हूं।" __यह बात अटपटी अवश्य लग सकती है कि समाज के परिपेक्ष्य में व्यक्ति कैसे मान ले कि “मैं अकेला हूं"। यह प्रश्न उभर कर आता है कि क्या इस चिन्तन से सारे पारिवारिक सम्बन्ध टूट नहीं जायेंगे? यह प्रश्न उभर सकता है। किन्तु हम एकांगी दृष्टिकोण से विचार न करें। जीवन-यात्रा को चलाने के लिए व्यवहार की भूमिका पर यह बात भी जरूरी है कि “मैं
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