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प्रेक्षाध्यान सिद्धान्त और प्रयोग १५८ प्रेक्षाध्यान के सोपान पर भी आरोहण नहीं कर सकता। दोनों साथ-साथ चलते हैं। प्रेक्षा के पश्चात् अनुप्रेक्षा और अनुप्रेक्षा के पश्चात प्रेक्षा। ये दोनों एक ही चित्त की दो अवस्थाए है। जब तक पानी तरल है, तब तक पानी है और जब वह जम जाता है, तब बर्फ बन जाता है। मूलतः दोनों में कोई अन्तर नहीं है। बर्फ का भी अपना मूल्य है और तरल पानी का भी अपना मूल्य है। तरल रहने से उसका मूल्य समाप्त नहीं हो जाता। अनुप्रेक्षा हमारे चित्त की तरल अवस्था है। एक बिन्दु पर हम चित्त को केन्द्रित करते हैं, चित्त वहां जम जाता है, स्थिर हो जाता है वह चित्त ध्यान बन जाता है। जब चित्त उस बिन्दु पर स्थिर नहीं होता, आसपास घूमता है, तब वह अनुप्रेक्षा होती है। समस्या को सुलझाने के लिए अनुप्रेक्षा बहुत जरूरी है। एक समस्या पर ध्यान को केन्द्रित करना “विचय ध्यान” की प्रक्रिया है। अज्ञात को ज्ञात, अनुपलब्ध को उपलब्ध और सत्य का अनुसंधान करना है तो चिंतन के एक बिन्दु पर ध्यान केन्द्रित करना होगा। जब चेतना की धारा एक दिशागामी, एक विचारगामी होती है तब समस्या सुलझ जाती है, अज्ञात ज्ञात हो जाता है। जब तक ध्यान की स्थिति नहीं बनती, तब तक चिंतन या अनुचिंतन के द्वारा ही समस्या को सुलझाया जा सकता है।
ध्यान-साधक के सामने भी अनेक समस्याएं उपस्थित होती हैं। यदि अनुप्रेक्षा का आलंबन न हो, तो साधन उलझ जाता है। कुछ एक व्यक्ति कहते हैं-"ध्यान के साधक को ग्रन्थ नहीं पढ़ने चाहिए, जप नहीं करना चाहिए, संकल्प-शक्ति और प्राण-शक्ति का प्रयोग नहीं करने चाहिए, चिन्तन-अनुचिंतन नहीं करना चाहिए। ध्यान साधक निर्विचार रहे। इसका कोई विरोध नहीं कर सकता। किन्तु निर्विचारता की उपलब्धि प्रारम्भ में नहीं हो जाती। अनुप्रेक्षा से बचाव
ध्यान के द्वारा जब कर्म के साथ छेड़छाड़ होती है, तब वह रौद्र रूप धारण कर लेता है। यदि उस समय अनुप्रेक्षा का सम्बल नहीं मिलता, तो साधक उस स्थिति को संभाल नहीं पाता। ध्यान करने से जब ऊर्जा जागती है, तब क्रोध भी बढ़ जाता है। शक्ति का कार्य उत्तेजना पैदा करना है। जब यह शक्ति जागती है और यदि उसे सही रास्ता मिल जाता है, नियामक तत्त्व मिल जाता है, तो वह साधक की अन्यान्य निष्पत्तियों के संवर्धन में हेतुभूत हो सकती है। यदि ऐसा नहीं होता, तो शक्ति बहुत खतरनाक हो सकती है।
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