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प्रेक्षाध्यान सिद्धान और प्रयोग
१३६ संचित होते हैं और मन में वासना की विकृति पैदा करते हैं। आपका उपवास, एकान्तर उपवास, पांच दिन का उपवास, आठ दिन का उपवाया सारे बाह्य तप के प्रयोग शरीर के भीतरी रसायनों में परिवर्तन लात । आसन, प्राणायाम और अन्य यौगिक क्रियाओं के द्वारा रासायनिक परिवर्तन घटित होता है। प्रायश्चित्त, विनय, स्वाध्याय आदि आभ्यन्तर तपश्चर्या के प्रयोग के द्वारा भी रसायनों में परिवर्तन आता है। प्राचीन भाषा के प्रायश्चित्त को आज की भाषा में मनोविश्लेषण या आत्मविश्लेषण कह सकते हैं। प्रायश्चित्त की निर्मल भावना पुरानी ग्रन्थियों को खोल देती है। विनय अहंकार-शून्यता की प्रक्रिया सब प्रकार की तपश्चर्या में रासायनिक परिवर्तन अपने आप घटित होता है। लेश्याओं का रूपान्तरण
किन्तु रासायनिक परिवर्तन का सबसे बड़ा सूत्र है-ध्यान । चैतन्य केन्द्रों के ध्यान और लेश्या-ध्यान के द्वारा भीतरी रसायनों में आश्चर्यजनक परिवर्तन होता है, भाव-संस्थान में परिवर्तन होता है और लेश्याओं में परिवर्तन होता है। जैसा पहले बताया जा चुका है, दुष्प्रवृत्तियों के द्वारा संचित होने वाले कर्म कषायवलय को प्रबल करते रहते हैं। जब संचित कर्म का विपाक होता है-वे फल देने के लिए तैयार होते हैं, तब वे तरंगों और रसायनों के रूप में कषाय-वलय से बाहर आते हैं और ग्रन्थि-तंत्र के माध्यम से वृत्तियों और वासनाओं को पैदा करते हैं। जब तरंगें और रसायन तीव्र विपाक लेकर बाहर आ रहे होते हैं, तब लेश्या-ध्यान (चैतन्य-केन्द्रों पर रंगों के ध्यान) के द्वारा ऐसी तरंगें और ऐसे रसायनों का निर्माण होता है कि वे तीव्र विपाक वाली तरंगें नष्ट हो जाती हैं, रसायन मन्द हो जाते हैं, उनका सामर्थ्य क्षीण हो जाता है और उनका आक्रमण विफल हो जाता है।
भीतर से तीव्र विपाक का जो परिस्राव आता है, उस स्राव को ग्रन्थियां बाहर लाती हैं। लेश्या-ध्यान से ग्रन्थियां शुद्ध होने लगती हैं, लेश्यायें शुद्ध होने लगती हैं, तब अध्यवसाय शुद्ध होने लगते हैं। जब अध्यवसाय शुद्ध होते हैं, तब कषाय के तीव्र विपाक नहीं आ सकते-वे मन्द हो जाते हैं। मन्द विपाक तीव्र वृत्ति, वासना या बुरी आदत का निर्माण नहीं कर सकता। भावधारा का निर्मलीकरण
लेश्या की परिभाषा करते समय यह बताया गया था कि केन्द्र म
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