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प्रेक्षाध्यान सिद्धान्त और प्रयोग कापोत लेश्या न्यूनतम है। दूसरी ओर असक्लेश की न्यूनतम अवस्था है तेजस् लेश्या, मध्य है पद्म लेश्या और उत्कृष्ट है शुक्ल लेश्या।
तीन प्रशस्त लेश्याओं ने जिस व्यक्तित्व का निर्माण किया है, उसे विघटित करने के लिए तीन प्रशस्त लेश्याएं सक्षम हैं। वे नया व्यक्तित्व उभार देती है।
वृत्तियों का उद्भव-स्थान
हमारी वृत्तियां, भाव या आदतें-इन सबको उत्पन्न करने वाला सशक्त तंत्र है-लेश्या-तंत्र। जब तक लेश्या-तंत्र शुद्ध नहीं होता, तब तक आदतों में परिवर्तन नहीं हो सकता। लेश्या-तंत्र को शुद्ध करना आवश्यक है। उसको शुद्ध करने की प्रक्रिया को समझने से पहले यह समझना जरूरी है कि अशुद्धि कहां जन्म लेती है और कहां प्रकट होती है। यदि हम उस तन्त्र को ठीक समझ लेते हैं, तो उसे शुद्ध करने की बात समझने में बड़ी सुविधा हो जाती है।
बुरी आदतों को उत्पन्न करने वाली लेश्याएं हैं-कृष्ण-लेश्या, नील-लेश्या और कापोत-लेश्या। क्रूरता, हत्या की भावना, कपट, असत्य बोलने की भावना, प्रवंचना, धोखाधड़ी, विषय की लोलुपता, प्रमाद, आलस्य आदि जितने दोष हैं, ये सब इन लेश्याओं से उत्पन्न होते हैं। हमारे इस स्थूल शरीर में इन लेश्याओं के संवादी स्थान हैं, जिनमें ये वृत्तियां उत्पन्न होती हैं। अधिवृक्क ग्रन्थियां (एड्रीनल ग्लैण्ड्स) और काम ग्रंथियां (गोनाड्स)-ये दो ग्रंथियां इन लेश्याओं के प्रतिनिधि या संवादी स्थान हैं। इन तीन लेश्याओं के भाव यहां जन्म लेते हैं।
हम वर्तमान विज्ञान की दृष्टि, योग-शास्त्र की दृष्टि और लेश्या के सिद्धांत की दृष्टि, इन तीनों दृष्टियों से इन पर विचार करें और इनकी तुलना करें।
वर्तमान विज्ञान की दृष्टि के अनुसार काम-वासना का स्थान है-जनन-ग्रन्थियां (गोनाड्स)। वहां कामवासना उत्पन्न होती है। अन्य वृत्तियों का स्थान है-अधिवृक्क ग्रंथियां (एड्रीनल ग्लैण्ड्स)। वहां भय, आवेग, बुरे भाव जन्म लेते हैं।
योग-शास्त्र की भाषा में तीन चक्र हैं-स्वाधिष्ठान-चक्र, मणिपूर-चक्र और अनाहत-चक्र, जहां हमारी सारी वृत्तियां जन्म लेती हैं। “एड्रीनल और गोनाड्स” को योग-शास्त्र की भाषा में स्वाधिष्ठान-चक्र और मणिपूर चक्र कहा जाता है।
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