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लेश्या ध्यान
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जैसे रंग का हम ग्रहण करते हैं, वैसे ही हमारे भाव, आचार और व्यवहारे बन जाते हैं। स्फटिक के सामने जैसा रंग आता है, वह वैसा ही दिखने लग जाता है। स्फटिक का अपना रंग नहीं होता। आत्मा के परिणामों का भी अपना कोई रंग नहीं होता। सामने जिस रंग के परमाणु आते हैं, आत्मा के परिणाम भी वैसे हो जाते हैं। ये परिणाम ही हमारी भाव- लेश्या है।
द्रव्य लेश्या, भाव लेश्या
लेश्या दो प्रकार की है- द्रव्य लेश्या और भाव लेश्या । द्रव्य लेश्या भौतिक (पौद्गलिक) है और भाव लेश्या चैतन्य का एक स्तर है। पुद्गल का लक्षण है- वर्ण, गंध, रस और स्पर्श-युक्त होना। द्रव्य लेश्या में भी ये चारों गुण पाए जाते हैं। भाव लेश्या अपौद्गलिक है, इसलिए उसमें कोई वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श नहीं होते । कृष्ण लेश्या का वर्ण काला, नील लेश्या का नीला और कापोत लेश्या का वर्ण कबूतर या राख जैसा होता है। ये तीन अप्रशस्त लेश्याएं हैं। तेजो लेश्या का वर्ण लाल, पद्म लेश्या का पीला और शुक्ल लेश्या का सफेद होता है। ये तीन प्रशस्त लेश्याएं हैं। तीनों अप्रशस्त लेश्याओं के गन्ध, रस और स्पर्श भी अमनोज्ञ तथा प्रशस्त लेश्याओं के गंध, रस और स्पर्श मनोज्ञ होते हैं।
इन चार गुणों में से रंग चित्त को सबसे अधिक प्रभावित करता है । हमारा सारा जीवन-तंत्र रंगों के आधार पर चलता है। आज मनोवैज्ञानिकों और वैज्ञानिकों ने यह खोज की है कि व्यक्ति के अन्तर्मन को - अवचेतन मन को और मस्तिष्क को सबसे अधिक प्रभावित करने वाला है - रंग । हमारा जीवन ही नहीं, मृत्यु का सम्बन्ध भी रंग से है। हमारे पुनर्जन्म का संबंध भी रंग से है ।'
तीन अप्रशस्त लेश्याएं रूखी और ठंडी हैं। तीन प्रशस्त लेश्याएं चिकनी और गरम हैं। यह प्रशस्तता और अप्रशस्तता की व्याख्या संक्लेश और असंक्लेश के आधार पर की गई है, इसलिए सापेक्ष है। असंक्लेश का अर्थ है- विशुद्धि | संक्लेश का अर्थ है - अविशुद्धि । कृष्ण लेश्या की अपेक्षा नील लेश्या विशुद्ध है और नील लेश्या की अपेक्षा कापोत लेश्या विशुद्ध है । कृष्ण लेश्या संक्लेश का चरम बिन्दु है, नील लेश्या मध्य है और १. एक व्यक्ति मरता है, वह अगले जन्म में पैदा होता है। प्रश्न पूछा गया - "वह अगले जन्म में क्या होगा ? कैसा होगा ?" उत्तर मिला- "जिस लेश्या में मरेगा, उसी लेश्या में उत्पन्न होगा - जिस रंग में मरेगा उसी रंग में पैदा होगा।"
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