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प्रेक्षाध्यान : सिद्धान्त और प्रयोग
लेश्या के क्रियाकलाप
यह लेश्या एक बहुत बड़ा कारखाना है। कषाय के तरंगें और कषाय की शुद्धि होने पर आने वाली चैतन्य की तरंगें-इन सब तरंगों को भाव के सांचे में ढालना, भाव के रूप में इनका निर्माण करना, और उन्हें विचार तक, वाणी तक, क्रिया तक पहुंचा देना, यह इसका काम है। सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर के बीच में सम्पर्क-सूत्र का कार्य लेश्या करती है। मन वचन और काया की प्रवृत्ति के द्वारा जो कुछ बाहर से आता है वह कच्चा माल होता है। लेश्या उसे लेती है और उसे कषाय तक पहुंचा देती है। फिर भीतर से वह कच्चा माल पक्का बनकर आता है। जो कर्म भीतर जाता है, वह फिर विपाक होकर आता है। भीतरी स्राव जो रसायन बनकर आता है उसे लेश्या फिर अध्यवसाय से लेकर हमारे सारे स्थूल तंत्र-अन्तःस्रावी ग्रंथियों और मस्तिष्क तक पहुंचा देती है। इसलिए यदि हमारे स्थूल शरीर में लेश्या के प्रतिनिधि-संस्थानों को खोजें, उनके बिक्री-संस्थानों को खोजें, तो जितनी अन्तःस्रावी ग्रन्थियां हैं, ये सारी लेश्या की प्रतिनिधि-संस्थाएं हैं, बिक्री-संस्थान हैं। उनके सेल्स-मैनेजर वहां बैठे हैं। अच्छे ढंग से उनके माल की सप्लाई कर रहे हैं।
अन्तःस्रावी ग्रंथियों के जो स्राव हैं, वे कर्मों के स्राव से प्रभावित होकर निकलते हैं। कर्मों के स्राव भीतर से आते हैं लेश्या के द्वारा और ग्रंथियों में आकर वे सारे व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं। सारा व्यक्तित्व उससे निर्मित होता है। लेश्या-रंग का संस्थान
भीतर कषाय' का तंत्र है। वहां जो कुछ भी जाता है, वह रंगीन हो जाता है। जो भी माल बाहर आता है, वह रंगीन आता है।
हिंसा, असत्य, क्रोध, अहंकार, कपट आदि का आचरण करने वाला व्यक्ति बाहर से काले, नीले आदि मलिन रंगों के परमाणु आकर्षित करता है। लेश्या-तंत्र उन्हें कषाय-तंत्र तक पहुंचाता है। जब विपाक होता है, तब कषाय से रंगीन होकर लेश्या के माध्यम से वे बाहर आते हैं और भिन्न-भिन्न अंतःस्रावी ग्रंथियों में आकर भिन्न-भिन्न प्रकार की वृत्तियों और वासनाओं को प्रकट करते हैं। इस प्रकार सम्पर्क-सूत्र का सारा कार्य लेश्या-तंत्र के हाथ में है।
१. कषाय शब्द का चुनाव भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। कषाय का अर्थ होता है रंगा हुआ।
रंगे हुए या लाल रंगे हए कपडे को 'काषायिक' कपडा कहा जाता है।
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