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शरीर-क्षा का एक संतुलन होना चाहिए। शरीर में विद्युत का प्रवाह संतुलित रहना चाहिए। वह संतुलन बिगड़ा और आदमी बीमार बन गया। पेक्षा करने वाला पूरे शरीर को देखता है-सिर से पैर तक देखता है। देखने का मतलब है, जहां चित्त जाता है वहां प्राण जाता है। चित्त और प्राण दोनों साथ-साथ जाते हैं। चित्त केन्द्रित हुआ, माण को उसके साथ जाना ही होगा। प्राण चित्त का अनुचारी है, अनुगामी है। पूरे शरीर में प्राण की यात्रा होती है। जो संतुलन बिगड़ा हुआ होता है, वह संतुलन फिर ठीक हो जाता है। परिणाम-स्वरूप जहां चेतना पर आया हुआ आवरण दूर होता है. वहां साथ ही प्राण-शक्ति, ज्ञान-तन्तुओं एवं कर्म-तन्तुओं के पर्याप्त उपयोग तथा मांसपेशियों व रक्त-संचार (Blood Circulation) की क्षमता में संतुलन के माध्यम से अभीष्ट मानसिक एवं शारीरिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
शरीर में रोग न होने देने का दूसरा उपाय है-रोग-प्रतिरोधक शक्ति का विकास। जब रोग-प्रतिरोधक शक्ति प्रबल होती है, तब किसी भी प्रकार के रोग के कीटाणु आक्रमण नहीं कर सकते। वे आते हैं और पराजित होकर भाग जाते हैं। जिस व्यक्ति की प्रतिरोधात्मक शक्ति मजबूत है उसे उसे कीटाणु सताने का प्रयत्न करते हैं, पर सता नहीं पाते। हम शरीर-प्रेक्षा के द्वारा रोग-प्रतिरोधक शक्ति को सक्षम बनाते हैं, उसकी एक मजबूत दीवार खड़ी करते हैं जिससे कि कोई आक्रमण न कर सके।
शरीर-प्रेक्षा की सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण निष्पत्ति है-चेतना के साथ जुड़ी हुई आस्था का निर्माण। उस आस्था के आधार पर संचालित होने वाली नई आदतों का निर्माण। शरीर-प्रेक्षा उत्सर्जन-तन्त्र को सक्रिय एवं सक्षम बनाए रखने में सहायक होती है, जिससे कि शरीर का विष सहजतया विसर्जित हो जाए।
शरीर-प्रेक्षा के द्वारा रक्त-संचार-तंत्र ठीक काम करने लग जाता है, रक्त-संचार में होने वाले अवरोध दूर हो जाते हैं, धमनियों के अवरोध दूर होते हैं, रक्त-चाप सन्तुलित होता है। हृदय को अतिरिक्त श्रम नहीं करना पड़ता और वह लम्बे समय तक कार्यक्षम हो सकता है।
___ शरीर-प्रेक्षा का प्रभाव पाचन-तन्त्र पर पड़ने से आमाशय, यकृत, आंतें आदि सभी अवयवों की कार्य-प्रणाली ठीक चलने लगती है। इससे प्रत्येक क़ोशिका को पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्त्व मिल सकते हैं। प्रत्येक मांसपेशी अपना कार्य सुचारु रूप से संचालित करने के लिए उद्यत रह सकती है। सभी उदर-संबंधी रोगों का स्वतः निवारण हो जाता है।
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