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प्रेक्षाध्यान : सिद्धान्त और प्रयोग कले। अंगली इसलिए हिलती है
६२ तक शरीर को सर्वथा अनात्मा नहीं कह सकते। अंगुली इसलिए न कि वह आत्मा है, शरीर में आत्मा के असंख्यात प्रदेश फैले हा
आत्म-दर्शन का पहला प्रयोग है-शरीर को देखना।
शरीर को हम तब देख सकते है, जब शरीर-प्रेक्षा का अभ्यास करें बाहर और भीतर चित्त को टिकायें, एकाग्र करें। शरीर के भीतर जो के प्रकंपन हो रहे हैं, जो रसायन काम कर रहे हैं, विद्युत काम कर रही है, उसे देखें । हमारे शरीर की “कैमेस्ट्री” अलग है, अलग ही काम कर रही है। उन सारे परिवर्तनों को जब तक हम नहीं देख पाते, तब तक आत्म-दर्शन की बात नहीं होती।
आत्मा के शुद्ध स्वरूप की यात्रा का पहला प्रस्थान है-श्वास-दर्शन। दूसरा प्रस्थान है-शरीर-दर्शन यानी शरीर-प्रेक्षा।
शरीर-प्रेक्षा की यह प्रक्रिया अन्तर्मुख होने की प्रक्रिया है। सामान्यतः बाहर की ओर प्रवाहित होने वाली चैतन्य की धारा को अन्तर की ओर प्रवाहित करने का प्रथम साधन स्थूल शरीर है।
स्थूल शरीर के भीतर तैजस और कार्मण-ये दो सूक्ष्म शरीर हैं। उनके भीतर आत्मा है। शरीर की क्रियाओं और संवेदनों को देखने का अभ्यास करने वाला क्रमशः तैजस और कार्मण-शरीर को देखने लग जाता है। शरीर-प्रेक्षा के दृढ़ अभ्यास और मन में सुशिक्षित होने पर शरीर में प्रवाहित होने वाली चैतन्य की धारा का साक्षात्कार होने लग जाता है।
निष्पत्तियां प्राण का संचालन : रोग-प्रतिरोधात्मक शक्ति का विकास : शरीर का कायाकल्प
शरीर-प्रेक्षा का महत्त्वपूर्ण परिणाम है-प्राण-प्रवाह का संतुलन । शरीर-प्रेक्षा आध्यात्मिक प्रक्रिया है, साथ-साथ यह मानसिक और शारीरिक प्रक्रिया भी है। स्वास्थ्य के लिए भी बहुत बड़ी चिकित्सा है-प्राण-चिकित्सा। शरीर-प्रेक्षा करने वाला केवल आध्यात्मिक प्रयोग ही नहीं कर रहा है, साथ-साथ में प्राण-चिकित्सा का प्रयोग भी कर रहा है, बीमारियों की चिकित्सा भी कर रहा है।
यदि प्राण-शक्ति का संतुलन बना रहे, तो कोई बीमार नहीं हो सकता। असंतुलन ही मनुष्य को बीमार बना रहा है। कहीं प्राण ज्यादा हो गया और कहीं कम हो गया, संतुलन बिगड़ गया। पूरे शरीर में प्राण-धारा
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