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प्रेक्षाध्यान सिद्धान्त और प्रक
आजीवित रखने की क्रियाशील है. तब
करने और छोड़ने की शक्ति श्वासोच्छवास-प्राण है तथा जीवित शक्ति आयुष्य-प्राण है। इन दसों में जब तक आयुष्य-प्राण क्रियापी तक किसी एक शक्ति का काम बद हो जाने पर भी प्राणी सकता है।
पर भी प्राणी जीवित रह
औदारिक शरीर
जैन आगमों में हमारा शरीर तीन प्रकार का बताया गया । औदारिक, तैजस और कार्मण। औदारिक शरीर में हमारा अस्थि हमारी मांसपेशियां तथा शरीर-विज्ञान द्वारा व्याख्यायित सभी तन्त्र पाचन-तंत्र, श्वसन-तंत्र, परिसंचरण-तंत्र आदि तथा पांचों इन्द्रियां-श्रोत्रेनि चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, स्पर्शनेन्द्रिय एवं मन आ जाते हैं। पांचों इंद्रियों और मन को भोगोन्मुख या योगोन्मुख करना, यह स्वयं व्यक्ति पर निर्भर है। शरीर-प्रेक्षा का एक कार्य इन्द्रिय-संयम का विकास भी है।
अध्यात्म में इन्द्रिय-संयम एवं मनः-संयम पर बल दिया गया है। चेतना इन्द्रियों और मन के मनोज्ञ और अमनोज्ञ विषयों के प्रति क्रमशः आसक्ति और घृणा अभिव्यक्त करती है। ये दोनों ही बंधन के हेतु हैं। वास्तव में इंद्रियों एवं मन का काम आसक्ति और घृणा नहीं है। बल्कि केवल जानना है-बिना आसक्ति और घृणा किए जानना है। यही शरीर-प्रेक्षा का लक्ष्य है। प्रमाद से मुक्त होना और जागरूक होकर शरीर का उपयोग करना शरीर-प्रेक्षा का आध्यात्मिक पक्ष है।
जैन आगम उत्तराध्ययन में विभिन्न उपमाओं के द्वारा इंद्रिय-विषयों और भावों में अत्यन्त आसक्त या द्विष्ट होने वाले व्यक्ति की दुर्दशा का मार्मिक चित्रण किया गया है। वहां बताया गया है
___ "जो मनोज्ञ रूपों, शब्दों, गन्धों, रसों, स्पर्शों और भावों में तीव्र आसक्ति करता है, वह वैसे ही अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है जैसे प्रकाश-लोलुप पतंगा रूप में आसक्त होकर, अतृप्त बना हुआ रागातुर हरिन शब्द में मुग्ध होकर, बिल से निकलता हुआ सर्प नाग-दमनी आदि औषधियो के गन्ध में गृद्ध होकर, मांस के रसास्वादन में आसक्त बना रागातुर मत्स्य कांटे से बींधकर, घड़ियाल के द्वारा पकड़ा हुआ भैंसा अरण्य-जलाशय १ शीतल जल के स्पर्श में मग्न होकर तथा हथिनी के प्रति आकृष्ट हाया काम-गुणों (भावों) में आसक्त होकर विनाश को प्राप्त होते हैं।" “जो अमनोज्ञ रूपों, शब्दों, गन्धों, रसों, स्पर्शों और भावों में तीव्र धन
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