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________________ 2/7 21. तदन्वयव्यतिरेकानुविधानाभावाच्च न केवलं परिच्छेद्यत्वातयोस्तदकारणताऽपि तु ज्ञानस्य तदन्वयव्यतिरेकानुविधानाभावाच्च । नियमेन हि यद्यस्यान्वयव्यतिरेकावनुकरोति तत्तस्य कार्यम् यथाग्नेर्धूमः न चानयोरन्वयव्यतिरेकौ ज्ञानेनानुक्रियेते । 22. अत्रोभयप्रसिद्धदृष्टान्तमाहकेशोण्डुकज्ञानवन्नक्तञ्चरज्ञानवच्च । कामलाद्युपहतचक्षुषो हि न केशोण्डुकज्ञानेर्थ कारणत्वेन व्याप्रियते। 23. तत्र हि केशोण्डुकस्य व्यापारः, नयनपक्ष्मादेव, तत्केशानां वा. कामलादेव गत्यन्तराभावात् ? न तावदाद्यविकल्पः न खलु तज्ज्ञानं केशोण्डुकलक्षणेर्थे सत्येव भवति भ्रमाभावप्रसङ्गात् नयनपक्ष्मादेस्तत्कारणत्वे कारण नहीं हैं। जो जिसका नियम से अन्वय व्यतिरेकी होगा वह उसका कार्य कहलायेगा। जैसे अग्नि के साथ धूम का अन्वय व्यतिरेक होने से धूम अग्नि का कार्य माना जाता है, किन्तु ऐसा अन्वय व्यतिरेक पदार्थ और प्रकाश के साथ ज्ञान का नहीं पाया जाता है। 22. इस विषय में वादी प्रतिवादी प्रसिद्ध दृष्टान्त को उपस्थित करते हैं- पीलिया, मोतिया आदि रोग से युक्त व्यक्ति के ज्ञान में पदार्थ कारण नहीं दिखाई देता अर्थात नेत्र रोगी को केश मच्छर आदि नहीं होते हुए भी दिखायी देने लग जाते हैं, वह मच्छर आदि का ज्ञान पदार्थ के अभाव में ही हो गया, वहाँ उस ज्ञान में पदार्थ कहाँ कारण हुआ? तथा बिलाव आदि प्राणियों को प्रकाश के अभाव में भी रात्रि में ज्ञान होता है उस ज्ञान में प्रकाश कहाँ कारण हुआ? 23. हम जैन नैयायिक आदि अन्य दार्शनिकों से पूछते हैं कि नेत्र रोगी को केशोण्डुक (मच्छर) का ज्ञान हुआ उसमें कौन सा पदार्थ कारण बनता है? केशोण्डुक ही कारण है या नेत्र की पलकें, अथवा उसके केश या कामला आदि नेत्र रोग ? इन कारणों को छोड़कर अन्य कारण तो बन नहीं सकते। प्रथम पक्ष की बात तो बनती नहीं है क्योंकि यह ज्ञान तो केशोण्डुक के रहते हुए नहीं होता, यदि होता तो भ्रम क्यों होता कि यह 62 :: प्रमेयकमलमार्त्तण्डसारः
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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