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तस्यैव प्रतिभासप्रसङ्गात्, गगनतलावलम्बितया पुरःस्थतया केशोण्डुकाकारतया च प्रतिभासो न स्यात्। न ह्यन्यदन्यत्रान्यथा प्रत्येतुं शक्यम्। अथ नयनकेशा एव तत्र तथाऽसन्तोपि प्रतिभासन्ते; तर्हि तद्रहितस्य कामलिनोपि तत्प्रतिभासाभावः स्यात्।
24. किञ्च, असौ तद्देशे एव प्रतिभासो भवेन्न पुनर्देशान्तरे। न प्रतिभास सत्य है या नहीं?
दूसरा पक्ष- नेत्र की पलकें उस ज्ञान में कारण हैं ऐसा माने तो उसी का प्रतिभास होना था? सामने आकाश में निराधार केशोण्डुक की शक्ल जैसा प्रतिभास क्यों होता? (यहाँ केशोण्डुक शब्द का अर्थ उड़ने वाला कोई मच्छर विशेष है, मोतियाबिन्दु आदि नेत्र के रोगी को नेत्र के सामने कुछ मच्छर जैसा उड़ रहा है ऐसा बार-बार भाव होता है, वह मच्छर भौंरा जैसा, झिंगुर जैसा, जिस पर कुछ रोम खड़े हो जैसा दिखाई देने लगता है वास्तव में वह दिखना निराधार बिना पदार्थ के ही होता है) अन्य किसी वस्तु की अन्य रूप से अन्य जगह प्रतीति होना शक्य नहीं है।
तृतीय पक्ष-नेत्र केश केशोण्डुक रूप से उस ज्ञान में झलकते हैं, यदि ऐसा कहो तो नेत्र केश रहित पीलिया आदि रोग वाले पुरुष को केशोण्डुक का प्रतिभास नहीं होना चाहिए, किन्तु उसको भी वैसा प्रतिभास होता है।
24. नेत्र के केश यदि केशोण्डुक रूप प्रतीत होते हैं तो वे उस नेत्र स्थान पर ही प्रतीत होते हैं, अन्य स्थान पर (सामने आकाश में) प्रतीत नहीं हो सकते थे। सूखे वृक्ष रूप लूंट में जो पुरुषपने की भ्रांति होती है वह उस स्थान पर ही होती है, अन्यत्र तो नहीं होती? यह जो नेत्र रोगी को केशोण्डुक का ज्ञान हो रहा है उसमें न तो तद्देशता है अर्थात् नेत्रकेश तो नेत्रस्थान पर है और प्रतीति होती है सामने आकाश में, और न ही उस ज्ञान में तदाकारता है अर्थात् नेत्रकेश का आकार भी नहीं है, फिर किस प्रकार वह उस केशोण्डुक ज्ञान को पैदा करता है कि जिससे वह ग्राह्य हो जाय?
प्रमेयकमलमार्तण्डसार:: 63