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तरतमभावेन तत्प्रदेशसन्निधाने तु संस्थानविशेषविशिष्टमेवार्थं वैशद्यतरतमभावेनाध्यक्षत एव प्रतिपद्यते, विशदज्ञानावरणस्य तरतमभावेनैवापगमात्। सांव्यवहारिकप्रत्यक्षविमर्शः
14. तथोक्तप्रकारं प्रत्यक्षं मुख्यसांव्यवहारिकप्रत्यक्षप्रकारेण द्विप्रकारम्। तत्र सांव्यवहारिकप्रत्यक्षप्रकारस्योत्पत्तिकारणस्वरूपे प्रकाशयति
इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं देशतः सांव्यवहारिकम् ॥5॥
15. विशदं प्रत्यक्षमित्यनुवर्त्तते। तत्र समीचीनोऽबाधित: प्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणो व्यवहारः संव्यवहारः, स प्रयोजनमस्येति सांव्यवहारिक प्रत्यक्षम्। नन्वेवंभूतमनुमानमप्यत्र सम्भवतीति तदपि सांव्यवहारिक प्रत्यक्षं प्रदेश के निकट आते जाने पर संस्थान आदि के ज्ञान में जो तरतमता आती जाती है उसका कारण विशद ज्ञानावरणी कर्म का तरतमरूप से अपगम होना है। सांव्यवहारिक प्रत्यक्षविमर्श
14. अब आचार्य माणिक्यनन्दि सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष प्रमाण का लक्षण कहेंगे। प्रत्यक्ष प्रमाण के दो भेद हैं-मुख्य प्रत्यक्ष और सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष, उन भेदों में से पहिले सांव्यवहारिक प्रत्यक्षप्रमाण की उत्पत्ति का कारण और उसके स्वरूप को बतलाने के लिए अगले सूत्र की रचना करते हैं
इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं देशतः सांव्यवहारिकम् ॥5॥
सूत्रार्थ- इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाले एकदेश विशद ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं।
15. आचार्य प्रभाचन्द्र कहते हैं कि 'विशदं प्रत्यक्षं' इस सूत्र का सन्दर्भ चला आ रहा है। 'सं' का अर्थ है समीचीन अबाधित, इस तरह अबाधित प्रवृत्ति और निवृत्ति लक्षणवाला जो व्यवहार है उसका नाम संव्यवहार है तथा यही संव्यवहार है प्रयोजन जिसका वह सांव्यवहारिक
56:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः