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________________ 214 जनिता सती स्वविषये प्रवर्त्तते इत्यव्यवधानेन प्रतिभासनाभावान्न प्रत्यक्षेति। 12. ततो निरवद्यमेवंविधं वैशा प्रत्यक्षलक्षणम्, साकल्येनाखिलाध्यक्षव्यक्तिषु सम्भवेनाव्याप्त्यसम्भवदोषाभावात्। अतिव्याप्तिस्तु दूरोत्सारितैव अध्यक्षत्वानभिमते क्वचिदप्येतल्लक्षणस्यासम्भवात्। 13. समन्धकारादौ ध्यामलितवृक्षादिवेदनमप्यध्यक्षप्रमाणस्वरूपमेव, संस्थानमात्रे वैशद्याविसंवादित्वसम्भवात्। विशेषांशाध्यवसायस्त्वनुमानरूपः, लिङ्गप्रतीत्या व्यवहितत्वान्नाध्यक्षरूपतां प्रतिपद्यते। अतिदूरदेशे हि पूर्व संस्थानमात्र प्रतिपद्य 'अयमेवंविधसंस्थानविशिष्टोर्थो वृक्षो हस्ती पलालकूटादि एवंविधसंस्थानविशिष्टत्वान्यथानुपपत्तेः' इत्युत्तरकालं विशेष विवेचयति। 12. इस प्रकार प्रत्यक्ष का यह वैशद्य लक्षण निर्दोष है, क्योंकि सम्पूर्ण प्रत्यक्षप्रमाणों में यह पाया जाता है, अतः इसमें अव्याप्ति और असम्भव दोषों का अभाव है। अतिव्याप्ति नाम का दोष तो दूर से ही हट गया है, क्योंकि जो प्रत्यक्ष नहीं है उनमें कहीं पर भी इस प्रत्यक्षलक्षण का सद्भाव नहीं पाया जाता है। 13. अन्धकारादि में जो अस्पष्ट रूप से वृक्षादि का ज्ञान होता है वह भी प्रत्यक्षप्रमाणस्वरूप ही है क्योंकि सामान्यपने से संस्थान मात्र में तो वैशद्य और अविसंवादित्व मौजूद है। वृक्षादि का जो विशेषांश है उसका निश्चय तो अनुमानज्ञान रूप होगा, उस विशेषांश ग्राहक ज्ञान को प्रत्यक्ष नहीं कहेंगे, क्योंकि उसमें लिङ्गज्ञान का व्यवधान है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार से है- जैसे किसी व्यक्ति ने अतिदूर देश में पहिले तो किसी पदार्थ का सामान्य आकार जाना, उसे जानकर वह फिर इस प्रकार से विशेष का विवेचन करता है कि जो ऐसे आकार वाला होता है वह वृक्ष होता है या हस्ती? या पलाल कूटादि होता है? क्योंकि इस प्रकार के आकार की अन्यथा अनुपपत्ति है। __इस तरह उत्तरकाल में वह अनुमान के द्वारा विशेष को जानता है, फिर जैसे-जैसे पुरुष आगे-आगे बढ़ता हुआ उस पदार्थ के प्रदेश के पास जाता है तब स्पष्ट रूप से जान लेता है। आगे आगे बढ़ने पर और प्रमेयकमलमार्तण्डसार:: 55
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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