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________________ 2/2 5. प्रमेयद्वैविध्यात् प्रमाणस्य द्वैविध्यमेवेत्यप्यसम्भाव्यम्, तद्द्वैविध्यासिद्धेः, 'एक एव हि सामान्यविशेषात्मार्थः प्रमेयः प्रमाणस्य' इत्यग्रे वक्ष्यते। किञ्चानुमानस्य सामान्यमात्रगोचरत्वे ततो विशेषेष्वप्रवृत्तिप्रसङ्गः । न खल्वन्यविषयं ज्ञानमन्यत्र प्रवर्त्तकम् अतिप्रसङ्गात् । 6. अथ लिङ्गानुमिता त्सामान्याद्विशेषप्रतिपत्तेस्तत्र प्रवृत्तिः नन्वेवं लिङ्गादेव तत्प्रतिपत्तिरस्तु किं परम्परया ? 5. इस पर बौद्ध का कहना है कि प्रमाण का विषय जो प्रमेय है वह दो प्रकार का होने से प्रमाण भी दो प्रकार का स्वीकार किया गया है। जैनाचार्य कहते हैं कि यह ठीक नहीं है जब प्रमेय के ही दो भेद असिद्ध हैं तब उससे प्रमाण के दो भेद किस प्रकार सिद्ध हो सकते हैं? अर्थात् नहीं सिद्ध हो सकते। हमारी मान्यता है कि प्रमाण का विषय सामान्य विशेषात्मक पदार्थ ही है। ऐसा ही हम आगे सिद्ध करने वाले हैं। बौद्ध सामान्य को ही अनुमान का विषय मानते हैं अतः ऐसे अनुमान की प्रवृत्ति विशेष विषयों में कैसे होगी? यह तो निश्चित बात है कि अन्य विषय वाला ज्ञान अन्य विषयों में प्रवृत्ति नहीं करता, यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो अतिप्रसङ्ग होगा, अर्थात् फिर तो घट को विषय करने वाला ज्ञान पर में प्रवृत्ति कराने लगेगा। इस सन्दर्भ में दोनों के मत इस प्रकार हैं 6. बौद्ध हेतु से अनुमित किये गये सामान्य से विशेष की प्रतिपत्ति होती है और उस प्रतिपत्ति से विशेष में प्रवृत्ति हो जाती है। जैन - यदि यही बात है तो सीधे हेतु से ही विशेष की प्रतिपत्ति होना मानो परम्परा से क्या प्रयोजन? अर्थात् हेतु से सामान्य की प्रतिपत्ति होना फिर उस सामान्य से विशेष की प्रतिपत्ति होना ऐसा मानते हैं उससे क्या लाभ है? कुछ भी नहीं । प्रत्यक्षप्रमाण विमर्श प्रमाण की संख्या का निर्णय होने के बाद अब प्रत्यक्ष प्रमाण का लक्षण आचार्य श्री माणिक्यनन्दी कहते हैं प्रमेयकमलमार्त्तण्डसारः: 51
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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