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प्रमाणमित्याचक्षते न तेषामनुमानादिप्रमाणान्तरस्यात्रान्तर्भावः सम्भवति तद्विलक्षणत्वाद्विभिन्नसामग्रीप्रभवत्वाच्च। 3. अस्तु नाम प्रत्यक्षानुमानभेदात्प्रमाणद्वैविध्यमित्यारेकापनोदार्थम
प्रत्यक्षतरभेदात् ॥2॥ 4. इत्याह। न खलु प्रत्यक्षानुमानयोाख्येयागमादिप्रमाणभेदानामन्तर्भावः सम्भवति यतः सौगतोपकल्पितः प्रमाणसंख्यानियमो व्यवतिष्ठेत। एक प्रत्यक्ष प्रमाण ही मानता है, उसकी एक प्रमाण संख्या में अनुमानादि प्रमाणों का अन्तर्भाव होना असम्भव है, क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण में और अनुमानादि प्रमाणों में विलक्षणता है, तथा वे भिन्न-भिन्न सामग्री से भी उत्पन्न होते हैं अर्थात् प्रत्यक्ष प्रमाण इन्द्रियादि से और अनुमानादिप्रमाण हेतु आदि से उत्पन्न होते हैं। तथा इनका स्वभाव भी विलक्षण (विशद/अविशद) है इसलिए प्रत्यक्ष प्रमाण में अनुमानादि प्रमाणों का अन्तर्भाव होना सम्भव नहीं है।
3. यहाँ पर अनुमान प्रमाण को सिद्ध हुआ देखकर बौद्ध कहते हैं कि जैनदर्शन ने जो प्रमाण की दो संख्या बताई है वह तो ठीक है, किन्तु हमारी बौद्धों की तरह प्रमाण के प्रत्यक्ष और अनुमान इस प्रकार दो भेद मानना चाहिए।
इस मान्यता के खण्डन हेतु जैनाचार्य अगला सूत्र प्रमाण के भेद बताने की दृष्टि से कहते हैं
प्रत्यक्षतरभेदात्॥2॥ सूत्रार्थ- प्रथम प्रत्यक्ष और द्वितीय प्रत्यक्ष से इतर अर्थात् परोक्ष के भेद से प्रमाण दो प्रकार का है।
4. आचार्य प्रभाचन्द्र कहते हैं कि बौद्ध की मान्यता के समान प्रत्यक्ष और अनुमान के भेद से प्रमाण दो प्रकार का नहीं है, क्योंकि इस संख्या में आगे कहे जाने वाले आगमादि प्रमाणों का अन्तर्भाव नहीं हो पाता है।
50:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः