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प्रामाण्यप्रवृत्तिविरोधः स्वतो जायमानस्यैवंरूपत्वात्, अन्यथा तदयोगात्। द्वितीयपक्षे तु सिद्धसाध्यता, स्वसामग्रीतः सकलभावानामुत्पत्त्यभ्युपगमात्। कारण के ही उत्पन्न होता है तो उस प्रामाण्य के सम्बन्ध में यह इसी स्थान के प्रामाण्य का या इसी समय के प्रमाण का यह प्रामाण्य ऐसा कह नहीं सकते हैं।
(ii) द्वितीय पक्ष माने तो इसमें सिद्धसाध्यता (अर्थात् जो एक बार सिद्ध हो चुका उसे पुनः सिद्ध करना) का दोष आयेगा क्योंकि यह सभी मानते हैं कि सभी पदार्थों की उत्पत्ति अपनी-अपनी सामग्री से ही हुआ करती है।
(iii) तृतीय पक्ष माने तो भी वह युक्तियुक्त नहीं है; क्योंकि प्रमाण से विशिष्ट कार्य जो प्रामाण्य है उसका कारण अविशिष्ट मानना (ज्ञान के कारण जैसा ही मानना) अयुक्त है, अर्थात् प्रमाण और प्रामाण्य भिन्न-भिन्न कार्य हैं अत: उनका कारणकलाप भी विशिष्ट-पृथक् होना चाहिए।
उसे ही समझाते हैं-प्रामाण्य विशिष्ट कारण से उत्पन्न होता है (पक्ष), क्योंकि वह विशिष्ट कार्य रूप है (हेतु), जैसा कि आप भाट्ट मीमांसक के यहाँ अप्रामाण्य को विशिष्ट कार्य होने से विशिष्ट कारणजन्य माना गया है, अतः आप अप्रामाण्यरूप विशिष्ट कार्य को कांच कमल आदि रोग युक्त, चक्षु आदि इन्द्रिय रूप विशिष्ट कारणों से उत्पन्न होना जैसा स्वीकार करते हैं ठीक उसी प्रकार प्रामाण्य भी विशिष्ट कार्य होने से गुणवान् नेत्र आदि विशिष्ट कारणों से उत्पन्न होता है- ऐसा मानना चाहिए। प्रामाण्य और अप्रामाण्य इन दोनों में भी विशिष्ट कार्यपना समान है, कोई विशेषता नहीं है। इस प्रकार प्रामाण्य की उत्पत्ति स्वतः होती है, ऐसा जो प्रथम पक्ष रखा गया है उसका निरसन हो जाता है।
(2) अब द्वितीय पक्ष था कि जानने रूप ज्ञप्ति की अपेक्षा प्रमाणता होती है अर्थात् प्रमाण में प्रमाण्य स्वतः जान लिया जाता है। इसके लिए कहते हैं कि-'ज्ञप्ति की अपेक्षा प्रामाण्य स्वतः है ऐसा
प्रमेयकमलमार्तण्डसारः: 47