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________________ 1/3 तृतीयपक्षोप्यविचारितरमणीय विशिष्टकार्यस्याविशिष्टकारणप्रभवत्वायोगात् । तथा हि-प्रामाण्यं विशिष्टकारणप्रभवं विशिष्टकार्यत्वादप्रामाण्यवत्। 57. यथैव ह्यप्रामाण्यलक्षणं विशिष्टं कार्य काचकामलादिदोषलक्षणविशिष्टेभ्यश्चक्षुरादिभ्यो जायते तथा प्रामाण्यमपि गुणविशेषणविशिष्टेभ्यो विशेषाभावात्। ज्ञप्तावप्यनभ्यासदशायां न प्रामाण्यं स्वतोऽवतिष्ठते, सन्देहविपर्ययाक्रान्तत्वात्तद्वदेव अभ्यासदशायां तुभवमपि स्वतः । नापि प्रवृत्तिलक्षणे स्वकार्ये तत्स्वतोऽवतिष्ठते स्वग्रहणसापेक्षत्वादप्रामाण्यवदेव तद्धि ज्ञातं सन्निवृत्तिलक्षणस्वकार्यकारि नान्यथा । " उस सर्वथा नहीं कह सकते, क्योंकि अनभ्यास दशा में अपरिचित ग्राम तालाब आदि के ज्ञान में स्वतः प्रमाणता नहीं हुआ करती है, अवस्था में तो संशय, विपर्यय आदि दोषों से प्रमाण भरा रहता है, तब उस समय प्रमाण में स्वतः प्रमाणता की ज्ञप्ति कैसे हो सकती है अर्थात् नहीं हो सकती । (3) अब तृतीय पक्ष जो स्वकार्य का है, वहाँ भी प्रमाण का प्रवृत्ति रूप जो कार्य है वह भी स्वतः नहीं होता है। क्योंकि उसमें भी अपने आपके ग्रहण करने की अपेक्षा हुआ करती है कि यह चांदी का ज्ञान जो मुझे हुआ है वह ठीक है या नहीं? 57. जिस प्रकार मीमांसक अप्रामाण्य के विषय में मानते हैं कि वह स्वतः नहीं आता, क्योंकि उसमें पर से निर्णय होता है कि यह ज्ञान काचकामलादि सदोष नेत्रजन्य है, अतः सदोष है इत्यादि । उसी प्रकार प्रामाण्य में मानना होगा अर्थात् यह ज्ञान निर्मलता गुणयुक्त नेत्रजन्य है अतः सत्य है। अप्रामाण्य जब ज्ञात रहेगा तभी तो वह अपना कार्य जो वस्तु से हटाना है, निवृत्ति कराना है उसे करेगा, अर्थात् यह प्रतीति असत्य है इत्यादि रूप से जब जाना जायेगा तभी तो जानने वाला व्यक्ति उस पदार्थ से हटेगा। अन्यथा नहीं हटेगा। वैसे ही प्रामाण्य जब ज्ञात रहेगा तभी उस प्रमाण के विषयभूत वस्तु में प्रामाण्य का प्रवृत्ति रूप स्वीकार्य होगा, अन्यथा नहीं। 48:: प्रमेयकमलमार्त्तण्डसारः
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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