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55. ये तु सकलप्रमाणानां स्वतः प्रामाण्यं मन्यन्ते तेऽत्र प्रष्टव्या:किमुत्पत्तौ, ज्ञप्तौ, स्वकार्ये वा स्वतः सर्वप्रमाणानां प्रामाण्यं प्रार्थ्यते प्रकारान्तरासम्भवात्? यद्युत्पत्तौ, तत्रापि 'स्वतः प्रामाण्यमुत्पद्यते' इति कोर्थ:? किं कारणमन्तरेणोत्पद्यते, स्वसामग्रीतो वा, विज्ञानमात्रसामग्रीतो वा गत्यन्तराभावात्।
56. प्रथमपक्षे-देशकालनियमेन प्रतिनियतप्रमाणाधारतया
55. जो सम्पूर्ण प्रमाणों में प्रमाणता स्वतः ही मानते हैं ऐसे मीमांसक भाट्ट से जैनाचार्य पूछते हैं कि
1. उत्पत्ति की अपेक्षा स्वतः प्रमाणता होती है अथवा 2. जानने रूप ज्ञप्ति की अपेक्षा स्वतः प्रमाणता होती है या
3. प्रमाण की जो स्वकार्य में (अर्थपरिच्छित्ति) में प्रवृत्ति होती है, उसकी अपेक्षा स्वतः प्रमाणता होती है?
इन तीनों प्रकारों को छोड़कर कोई और स्वतः प्रमाणता का साधक निमित्त हो नहीं सकता।
अब इन तीनों विकल्पों को क्रमशः देखते हैं
1. यदि उत्पत्ति की अपेक्षा स्वतः प्रमाणता माने तो वहाँ भी प्रश्न उठेगा कि उस स्वतः प्रामाण्य का अर्थ
(i) कारण के बिना उत्पन्न होना है अथवा (ii) अपनी सामग्री से उत्पन्न होना-यह अर्थ है? या फिर (iii) विज्ञानमात्र सामग्री से उत्पन्न होता है यह अर्थ है?
इन तीनों को छोड़कर और कोई अर्थ 'स्वतः प्रमाण्य' का निकलता नहीं है।
56. (i) प्रथम पक्ष माने तो देश और काल के नियम से प्रतिनियत- प्रमाणभूत आधार से प्रामाण्य की जो प्रवृत्ति होती है वह विरुद्ध होगी, क्योंकि स्वतः ही होता है उसका कोई निश्चित आधार नहीं रहता, यदि रहता है तब तो वह आधार के बिना अर्थात् कारण के बिना उत्पन्न हुआ है ऐसा कह ही नहीं सकते। अर्थात् यदि प्रामाण्य बिना 46:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः