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________________ 1/11-12 प्रतिभासोपि तच्छब्दोच्चारणं विनापि प्रतिभासते तस्माच्च न शाब्दः । तच्छब्दोच्चारणं पुनः प्रतिभातप्रमात्रादिस्वरूपप्रदर्शनपरं नाऽनालम्बनमर्थवत्, अन्यथा 'सुख्यहम्' इत्यादिप्रतिभासस्याप्यनालम्बनत्वप्रसङ्गः। समर्थयमानः कोवेत्यादिना प्रकरणार्थमुपसंहरति । को वा तत्प्रतिभासिनमर्थमध्यक्षमिच्छंस्तदेव तथा नेच्छेत् ॥11॥ प्रदीपवत् ॥12॥ केवल शब्द से होने वाली तो है नहीं, ऐसे ही प्रमाता आत्मा, प्रमाण- ज्ञानादि का भी प्रतिभास उस उस आत्मा आदि शब्दों का उच्चारण बिना किये भी होता है। इसलिए प्रमाता आदि की प्रतिपत्ति मात्र शाब्दिक नहीं है, आत्मा आदि का नामोच्चारण जो मुख से करते हैं वह तो अपने को प्रतिभासित हुए आत्मादि के स्वरूप बतलाने के लिए करते हैं। यह जो नामोच्चारण होते हैं वे बिना प्रमाता आदि के प्रतिभास हुए नहीं होते। जैसे कि घट आदि नामों का उच्चारण बिना घट पदार्थ के प्रतिभास हुए नहीं होता है। यदि अपने को अन्दर से प्रतीत हुए इन प्रमाता आदि को अनालंबन रूप माना जाय तो 'मैं सुखी हूँ' इत्यादि वाक्यों को हम मात्र शाब्दिक नहीं मानते हैं, किन्तु सालम्बन मानते हैं। ठीक उसी प्रकार प्रमाता आदि का प्रतिभास भी वास्तविक मानना चाहिए; निरालम्बरूप नहीं । अभी तक कई प्रकार से जो ज्ञान का स्वसंवेदत्व सिद्ध करते आ रहे हैं उसको और दृढ़ करने के लिए 'को वा' इत्यादि सूत्र के माध्यम से आचार्य माणिक्यनन्दि उपसंहार करते हैं को वा तत्प्रतिभासिनमर्थमध्यक्षमिच्छंस्तदेव तथा नेच्छेत् ॥11॥ प्रवीपवत् ॥12॥ सूत्रार्थ- 'कौन ऐसा पुरुष है जो ज्ञान से प्रतिभासित हुए पदार्थ को प्रत्यक्ष मानते हुए भी स्वयं ज्ञान को ही प्रत्यक्ष न माने ।।11।। ' 'दीपक के समान' ||12|| प्रमेयकमलमार्त्तण्डसारः: 43
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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