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परिकल्पनीयमित्यनवस्था स्यात् ।
45. तस्याप्रत्यक्षत्वेपि करणत्वे प्रथमे कोऽपरितोषोयेनास्य तथा करणत्वं नेष्यते। न चैकस्यैव ज्ञानस्य परस्परविरुद्धकर्मकरणाकाराभ्युपगमो युक्तोऽन्यत्र तथाऽदर्शनादित्याशङ्कय प्रमेयवत्प्रमातृप्रमाणप्रमितीनां प्रतीतिसिद्धं प्रत्यक्षत्वं प्रदर्शयन्नाह
44. ज्ञान को यदि प्रत्यक्ष होना माना जायेगा तो वह कर्म रूप हो जायेगा। जैसे कि पदार्थों को प्रत्यक्ष होना मानते हैं तो वे कर्मरूप होते हैं, इस तरह ज्ञान भी कर्मरूप बन जायेगा, तो उसको जानने के लिए दूसरे कारण की आवश्यकता पड़ेगी तब वह दूसरा कारणभूत ज्ञान भी प्रत्यक्ष होगा तो कर्म रूप हो जायेगा, फिर उस दूसरे ज्ञान के लिए तीसरा करणभूत ज्ञान चाहिए, इस प्रकार चलते-चलते कहीं पर भी विश्राम तो होगा नहीं अतः अनवस्था दोष का प्रसङ्ग आयेगा ।
45. यदि जैन यह कहें कि ज्ञान को प्रत्यक्ष करने वाला वह दूसरे नम्बर का ज्ञान अप्रत्यक्ष रहकर ही कारण बन जाता है अर्थात् उस दूसरे अप्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा ही प्रथम ज्ञान का प्रत्यक्ष होता है - तब तो आपको प्रथम ज्ञान को भी अप्रत्यक्ष ही मानना चाहिए जिस प्रकार दूसरा ज्ञान स्वतः अप्रत्यक्ष रहकर प्रथम ज्ञान के लिए करण बनता है वैसे ही प्रथम ज्ञान स्वत: अप्रत्यक्ष रहकर पदार्थों के प्रत्यक्ष करने में करण बन जायेगा, इसमें क्या बाधा है? तथा जैनाचार्य ज्ञान को कर्म रूप और करण रूप भी मानते हैं अतः वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि एक ही ज्ञान को परस्पर विरुद्ध दो धर्मयुक्त अर्थात् कर्म और करणरूप मानना ऐसा कहीं पर भी नहीं देखा जाता है।
उपरोक्त आशंकाओं को ध्यान में रखकर ही आचार्य माणिक्यनन्दि आगामी दो सूत्रों की रचना करते हुये समझाते हैं कि जिस प्रकार प्रमेय अर्थात् पदार्थ प्रत्यक्ष हुआ करते हैं वैसे ही प्रमाता -आत्मा, प्रमाण अर्थात् ज्ञान तथा प्रमिति - फल ये सबके सब ही प्रत्यक्ष होते हैं
38 : : प्रमेयकमलमार्त्तण्डसारः