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________________ 1/7 42. स्वव्यवसायसमर्थनार्थमर्थव्यवसायं स्वपरप्रसिद्धम् 'अर्थस्य' इत्यादिना दृष्टान्तीकरोति। अर्थस्येव तदुन्मुखतया ॥7॥ 43. इव शब्दो यथार्थे। यथाऽर्थस्य घटादेस्तदुन्मुखतया स्वोल्लेखितया प्रतिभासनं व्यवसाय तथा ज्ञानस्यापीति। स्वसंवेदनज्ञानविमर्शः 44. ननु विज्ञानस्य प्रत्यक्षत्वेऽर्थवत्कर्मतापत्ते: करणात्मनो ज्ञानान्तरस्य परिकल्पना स्यात्। तस्यापि प्रत्यक्षत्वे पूर्ववत्कर्मतापत्ते: करणात्मकं ज्ञानान्तरं ___42. इसके बाद आचार्य माणिक्यनन्दि इस स्वव्यवसाय विशेषण का समर्थन प्रतिवादी तथा वादी के द्वारा मान्य अर्थ व्यवसाय रूप दृष्टान्त के द्वारा कहते हैं अर्थस्येव तदुन्मुखतया॥7॥ सूत्रार्थ- जैसे अर्थ के उन्मुख होकर उसे जानना अर्थव्यवसाय है। जिस प्रकार पदार्थ की तरफ झुकने से पदार्थ का निश्चय होता है अर्थात् ज्ञान होता है, उसी प्रकार अपनी तरफ सम्मुख होने से ज्ञान को अपना व्यवसाय होता है। 43. सूत्र में 'इव' शब्द यथा शब्द के स्थान पर प्रयुक्त हुआ है। जैसे घर आदि वस्तु का उसकी तरफ उन्मुख होने पर ज्ञान के द्वारा व्यवसाय होता है वैसे ही ज्ञान को अपनी तरफ उन्मुख होने पर अपना निज का व्यवसाय होता है। चूंकि नैयायिकादि ज्ञान को स्वसंवेदी नहीं मानते हैं। अत: उनके निराकरण के प्रयोजन से आचार्य ने इन दो सूत्रों की रचना की है। स्वसंवेदनज्ञान विमर्श __ कुछ दार्शनिक ज्ञान के स्वसंवेदकत्व को स्वीकार नहीं करते। उनमें से मीमांसक प्रमुख हैं। मीमांसकों का कहना है कि जैनाचार्यों ने ज्ञान का जो स्वसंवेदन रूप प्रत्यक्ष माना है वह ठीक नहीं है। प्रमेयकमलमार्तण्डसारः: 37
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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