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________________ 1/6 स्वव्यवसायात्मकविशेषणविमर्शः 40. अथेदानीं प्राक् प्रतिज्ञातं स्वव्यवसायात्मकत्वं ज्ञानविशेषणं व्याचिख्यासुः स्वोन्मुखतयेत्याद्याह स्वोन्मुखतया प्रतिभासनं स्वस्य व्यवसायः ॥6॥ 41. स्वस्य विज्ञानस्वरूपस्योन्मुखतोल्लेखिता तया इतीत्थंभावे भा। प्रतिभासनं संवेदनमनुभवनं स्वस्य प्रमाणत्वेनाभिप्रेतविज्ञानस्वरूपस्य सम्बन्धी व्यवसायः। स्वव्यवसायात्मक विशेषण विमर्श ___40. आचार्य माणिक्यनन्दि ने पहले प्रमाण के लक्षण में ज्ञान का विशेषण स्वव्यवसायात्मक दिया है अब उसका व्याख्यान करते हुए अगला सूत्र कहते हैं स्वोन्मुखतया प्रतिभासनं स्वस्य व्यवसायः॥6॥ सूत्रार्थ-स्वोन्मुखरूप से अपने आपको जानना, यह स्वव्यवसाय है। 41. अपने आपको जानने के अभिमुख होने को स्वोन्मुखता कहते हैं। उस स्वानुभव रूप से जो प्रतिभास अर्थात् आत्मप्रतीति होती है, वही स्वव्यवसाय कहलाता है। खुद को जानने का नाम स्वव्यवसाय प्रभाचन्द्राचार्य समझाते हैं कि स्वयं की तरफ सम्मुख होने से जो प्रतिभास होता है वही स्वव्यवसाय कहलाता है। यहाँ 'स्वोन्मुखतया' ऐसी जो तृतीया विभक्ति का प्रयोग है वह 'ज्ञान को अपनी तरफ झुकाने से अर्थात् अपने स्वरूप की तरफ सम्मुख होने से' इस प्रकार के अर्थ में प्रयुक्त हुई है। प्रतिभासन का अर्थ संवेदन या अनुभवन है। प्रमाण स्वरूप से स्वीकार किया गया जो ज्ञान है उसके द्वारा अपना व्यवसाय निश्चय करना यह ज्ञान का अपना निश्चय करना कहलाता है। 36:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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