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________________ 1/3 न सोस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगममादृते। अनुविद्धमिवाभाति सर्वे शब्दे प्रतिष्ठितम्॥ वाग्रूपता चेदुत्क्रामेदवबोधस्य शाश्वती। न प्रकाशः प्रकाशेत सा हि प्रत्यवमर्शिनी।। अनादिनिधनं शब्दब्रह्मतत्त्वं यदक्षरम्। विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः।। शब्दसंस्पर्शित्व (ज्ञान और शब्द का स्पर्श) न माना जाय तो ज्ञान का अपना निज रूप कुछ शेष नहीं रह जाता। जितना भी यह वाच्यावाचकत्व है वह सब शब्दरूप ब्रह्म की ही पर्याय है और किसी की नहीं, और न ही यह कोई स्वतन्त्र पदार्थ है। कहा भी है 'ऐसा कोई ज्ञान नहीं है जो शब्द के अनुगम के बिना हो, सारा यह जगत् शब्द के द्वारा अनुविद्ध सा हो रहा है, समस्त विश्व शब्दब्रह्म में प्रतिष्ठित है' 'ज्ञान में व्यभिचरित रूप से रहने वाली शाश्वती वाग्रूपता का यदि ज्ञान में से उल्लंघन हो जाता है तो ज्ञान का अस्तित्व ही नहीं रह सकता, क्योंकि वह वाग्रूपता-शब्दब्रह्म ज्ञान से संबंधित होकर रहती है'॥2॥ 'शब्दब्रह्म रूप तत्त्व तो अनादिनिधन-आदि-अन्त रहित है क्योंकि वह अविनश्वर है, वही शब्दब्रह्म घटपटादि रूप से परिणमता है, अतः जगत् में जितने पदार्थ हैं वे सब उसी शब्दब्रह्म के भेद-प्रभेद हैं॥3॥ वाक्यपदीयम् 1/124 वाक्यपदीयम् 1/125 वाक्यपदीयम् 1/1 30:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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