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________________ 1/3 30. अनादिनिधनं हि शब्दब्रह्म उत्पादविनाशाभावात्, अक्षरं च अकाराद्यक्षरस्व निमित्तत्वात्, अनेन वाचकरूपता 'अर्थभावेन' इत्यनेन तु वाच्यरूपतास्य सूचिता। प्रक्रियेति भेदाः। शब्दब्रह्मेति नामसङ्कीर्तनमिति। 31. तेप्यतत्त्वज्ञाः; शब्दानुविद्धत्वस्य ज्ञानेष्वप्रतिभासनात्। तद्धि प्रत्यक्षेण प्रतीयते, अनुमानेन वा? प्रत्यक्षेण चेत्किमैन्द्रियेण, स्वसंवेदनेन वा? न तावदैन्द्रियेण; इन्द्रियाणां रूपादिनियतत्वेन ज्ञानाविषयत्वात्। नापि स्वसंवेदनेन; अस्य शब्दागोचरत्वात्। 30. यह शब्दब्रह्म अनादि निधन इसलिए है क्योंकि उसमें उत्पादविनाश नहीं होता, अकारादि अक्षरों का वह निमित्त है, अतः अक्षर रूप भी उसे कहा गया है, इससे यह प्रकट किया गया है कि वह वाचक रूप है तथा वही अर्थरूप से परिणमन करता है, अत: वही वाच्य रूप है, यही जगत् की प्रक्रिया है अर्थात् भेद-प्रभेद रूप जो ये जगत् है वह शब्दब्रह्ममय है। ये सभी मान्यतायें शब्दब्रह्माद्वैतवादी भर्तृहरि की हैं। 31. इस पर जैनाचार्य का कहना है कि तत्त्वज्ञ पुरुष ऐसा नहीं कह सकते। ये भी अतत्त्वज्ञों के द्वारा कहा गया है। क्योंकि ज्ञान शब्दानुविद्ध है यह बात बुद्धि में उतरती नहीं है, 'ज्ञानों में शब्दानुविद्धता है' यह बात किस प्रमाण से प्रमाणित है? प्रत्यक्ष प्रमाण से या अनुमान प्रमाण से? यदि कहो कि 'ज्ञानों में शब्दानुविद्धता प्रत्यक्ष से प्रमाणित है तो पुनः प्रश्न होगा कि इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष से या स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से? इन्द्रिय जन्य प्रत्यक्ष तो ज्ञानों में शब्दानुविद्धता को जान नहीं सकता क्योंकि इन्द्रिय की प्रवृत्ति मात्र रूपादि नियत विषयों में ही हो सकती है। ज्ञान में नहीं। यदि आप कहें कि शब्दानुविद्धता स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से सिद्ध होती है तो भी नहीं होगा, क्योंकि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष शब्दातीत होता है, अर्थात् अचेतन शब्द में स्वसंवेदनता का अभाव है। प्रमेयकमलमार्तण्डसार:: 31
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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