________________
1/3
28. न चाविकल्पकम् तथा-नीलादौ विकल्पस्य क्षणक्षयेऽनुमानस्यापेक्षणात्। ततोऽप्रमाणं तत् वस्तुव्यवस्थायामपेक्षितपरव्यापारत्वात् सन्निकर्षादिवत्। न चेदमनुभूयते-अक्षव्यापारानन्तरं स्वार्थव्यवसायात्मनो नीलादिविकल्पस्यैव वैशयेनानुभवात्। शब्दाद्वैतवादसमीक्षा
29. येपि शब्दाद्वैतवादिनो निखिलप्रत्ययानां शब्दानुविद्धत्वेनैव सविकल्पकत्वं मन्यन्ते- तत्स्पर्शवैकल्ये हि तेषां प्रकाशरूपताया एवाभावप्रसङ्गः। वाग्रूपता हि शाश्वती प्रत्यवमर्शिनी च। तदभावे प्रत्ययानां नापरं रूपमवशिष्यते। सकलं चेदं वाच्यवाचकत्त्वं शब्दब्रह्मण एव विवर्तो नान्यविवर्तो नापि स्वतन्त्रमिति। तदुक्तम्अथवा निर्णयात्मक होने से इत्यादि हेतुओं के द्वारा भी प्रमाण में व्यवसायात्मकत्व सिद्ध है। किसी अन्य प्रमाण की अपेक्षा किये बिना वस्तु को यथार्थ रूप से जानना, यही प्रमाण है।
28. निर्विकल्पक ज्ञान प्रमाण नहीं है क्योंकि निर्विकल्पक के विषय जो नीलादि हैं उनमें क्षणिकपने को सिद्ध करने के लिए अनुमान की अपेक्षा होती है। अतः अनुमान से सिद्ध किया जाता है कि वह निर्विकल्पक अप्रमाण है क्योंकि वस्तु व्यवस्था के लिए उसे तो दूसरे की अपेक्षा करनी पड़ती है। जैसे कि सन्निकर्षादि को ज्ञान की अपेक्षा करनी पड़ती है। दूसरी बात यह है कि निर्विकल्पक अनुभव में तो आता नहीं, इन्द्रियों की प्रवृत्ति के बाद अपने और पर के निश्चय रूप नीलादि विकल्प का ही स्पष्ट रूप से अनुभवन होता है। शब्दाद्वैतवाद-समीक्षा
29. भर्तृहरि शब्दाद्वैतवादी माने जाते हैं। उनका ऐसा मानना है कि जितने भी ज्ञान हैं उनका शब्द के साथ तादात्म्य सम्बन्ध है, इसीलिये वे सविकल्प हैं, यदि इनमें शब्दानुविद्धता न हो (अर्थात् शब्द संस्पर्श से ये रहित हों) तो ज्ञानों में वस्तुस्वरूप के प्रकाशन करने का अभाव होगा, वचन सदा से ज्ञान के कारण रहे हैं, यदि ज्ञान में
प्रमेयकमलमार्तण्डसारः: 29