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________________ 1/1 प्रमाणम्' इति प्रतिपादयन् प्रतिव्यूढः प्रतिपत्तव्यः; सर्वत्राज्ञानस्योपचारादेव प्रसिद्धः। 18. न च ज्ञातृव्यापारस्वरूपस्य किञ्चित्प्रमाणं ग्राहकम्-तद्धि प्रत्यक्षम्, अनुमानम्, अन्यद्वा? यदि प्रत्यक्षम्: तत्किं स्वसंवेदनम्, बाह्येन्द्रियजम्, मन:प्रभवं वा? न तावत्स्वसंवेदनम्: तस्यार्ज्ञाने विरोधादनभ्युपगमाच्च। नापि बाह्येन्द्रियजम्; इन्द्रियाणां स्वसम्बद्धेऽर्थे ज्ञानजनकत्वोपगमात्। न च ज्ञातृव्यापारेण सह तेषां सम्बन्धः प्रतिनियतरूपादिविषयत्वात्। नापि मनोजन्यम्; तथाप्रतीत्यभावादनभ्युपगमादतिप्रसङ्गाच्च। वह प्रमाण है। वैसे तो प्रभाकर की यह मान्यता सन्निकर्ष, इन्द्रियवृत्ति आदि की तरह निराकृत हो जाती है, क्योंकि यहाँ सभी जगह अज्ञान को प्रमाण माना है। इन्हें मात्र उपचार से ही प्रमाण कह सकते हैं अन्यथा नहीं। 18. प्रभाकर ने जिस ज्ञातृव्यापार रूप प्रमाण की चर्चा की है उसको ग्रहण करने वाला प्रमाण तो कोई है नहीं, यदि है तो वह कौन-सा है? प्रत्यक्ष या अनुमान या फिर कोई तीसरा? यदि वह प्रत्यक्ष है तो वह कौन-सा प्रत्यक्ष है? स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है या बाह्य इन्द्रिय प्रत्यक्ष है? अथवा मानस प्रत्यक्ष है? (1) यदि वह स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है तो स्व संवेदन प्रत्यक्ष अज्ञान रूप ज्ञातृव्यापार में प्रवृत्ति नहीं करता है, क्योंकि ऐसा मानने में विरोध है तथा आपने ऐसा माना भी नहीं है। (2) यदि वह बाह्य इन्द्रिय प्रत्यक्ष है तो वह ज्ञाता के व्यापार को कैसे जानेगा क्योंकि इन्द्रियाँ तो अपने से संबंधित पदार्थ में ज्ञान को पैदा करती हैं। ज्ञाता के व्यापार के साथ इन्द्रियों का सम्बन्ध हो नहीं सकता क्योंकि उनका तो अपना प्रतिनियत रूपादि विषयों में सम्बन्ध होता है। (3) यदि वह मनोजन्य प्रत्यक्ष है तो वह भी उस ज्ञातृव्यापार को ग्रहण नहीं करता है, क्योंकि न तो वैसी प्रतीति आती है और न आपने ऐसा माना है, तथा ऐसा मानने पर अतिप्रसङ्ग दोष भी आता है। 22:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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