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कारकसाकल्यवादसमीक्षा
2. तत्र प्रमाणस्य ज्ञानमिति विशेषणेन 'अव्यभिचारादिविशेषणविशिष्टार्थोपलब्धिजनक कारकसाकल्यं साधकतमत्वात् प्रमाणम्' इति प्रत्याख्यातम्: तस्याऽज्ञानरूपस्य प्रमेयार्थवत् स्वपरपरिच्छित्तौ साधकतमत्वाभावतः प्रमाणत्वायोगात् - तत्परिच्छित्तौ साधकतमवस्याऽज्ञानविरोधिना ज्ञानेन व्याप्तत्वात्।
3. छिदौ परश्वादिना साधकतमेन व्यभिचार इत्ययुक्तम्: तत्परिच्छित्तावितिविशेषणात्, न खलु सर्वत्र साधकतमत्वं ज्ञानेन व्याप्त-परश्वादेरपि ज्ञानरूपताप्रसङ्गात्। अज्ञानरूपस्यापि प्रदीपादे: स्वपरपरिच्छित्तौ साधकतमत्वोपलम्भात्तेन तस्याऽव्याप्तिरित्यप्ययुक्तम्
1. कारकसाकल्यवाद समीक्षा
2. नैयायिकों का मानना है कि 'अव्यभिचार आदि विशेषण से युक्त विशिष्ट अर्थ की उपलब्धि (ज्ञान) कराने वाला 'कारकसाकल्य' साधकतम होने से प्रमाण है।' जैनों के प्रमाण के ज्ञान विशेषण से नैयायिकों द्वारा मान्य इस कारकसाकल्यवाद का निराकरण हो जाता है क्योंकि वह अज्ञानरूप है वह प्रमेय-पदार्थ (अजीव वस्तु) के समान ही स्व और पर का ज्ञान कराने में साधकतम नहीं होने से अप्रमाण है। पदार्थ की परिच्छित्ति (ज्ञप्ति) के लिए अज्ञान का विरोधी ज्ञान ही साधकतम होता है तथा परिच्छित्ति की ज्ञान के साथ ही व्याप्ति बैठती है।
3. यहाँ प्रश्न उठता है कि छेदन क्रिया में परशु-कुठार (छेद करने वाले लौह यन्त्र) आदि अज्ञानी ही साधक हो जाते हैं। आचार्य कहते हैं नहीं; क्योंकि यहाँ परिच्छित्ति (जानकारी, ज्ञप्ति) का प्रकरण है। ज्ञान हर जगह साधकतम नहीं होता क्योंकि यदि साधकतम और ज्ञान की व्याप्ति करेंगे, तो कुठार वगैरह सामग्री भी ज्ञान रूप बन जायेगी।
पुनः शंकाकार शंका करते हैं कि 'स्व और पर की परिच्छित्ति (ज्ञान) में अज्ञानरूप दीपक में भी साधकतमपना देखा जाता है। अतः यहाँ अतिव्याप्ति दोष आता है।
14:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः