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________________ 1/1 4. तस्योपचारात्तत्र साधकतमत्वव्यवहारात्। साकल्यस्याप्युपचारेण साधकतमत्वोपगमे न किंचिदनिष्टम् मुख्यरूपतया हि स्वपरपरिच्छित्तौ साधकतमस्य ज्ञानस्योत्पादकत्वात् तस्यापि साधकतमत्वम्। 5. तस्माच्च प्रमाण-कारणे कार्योपचारात्-अन्नं वै प्राणा इत्यादिवत्। प्रदीपेन मया दृष्टं चक्षुषाऽवगतं धूमेन प्रतिपन्नमिति लोकव्यवहारोऽप्युपचारतः यथा ममाऽयं पुरुषश्चक्षुरितितेषां प्रमिति प्रति बोधेन व्यवधानात्, तस्य त्वपरेणाव्यवधानात्तन्मुख्यम्। न च व्यपदेशमात्रात्पारमार्थिकवस्तुव्यवस्था नड्वलोदकं पादरोगः' इत्यादिवत्। 4. इस शंका का समाधान करते हुये आचार्य कहते हैं कि यह शंका ठीक नहीं है क्योंकि दीपक में जो साधकतमपना है वह उपचार से है और इसी प्रकार उपचार से ही कारकसाकल्य में भी साधकतमपना माना जाये तो हमें कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि स्व-पर की परिच्छित्ति में तो मुख्य रूप से ज्ञान ही साधकतम है और उसको उत्पन्न कराने में कारण होने से कारकसाकल्य को भी साधकतमपना हो सकता है। 5. जिस प्रकार अन्न प्राण रक्षा में कारण होने पर उपचार से 'अन्न ही प्राण है'- ऐसा कहा जाता है उसी प्रकार प्रमाण के कारण में कार्य का उपचार करके प्रमाण के 'कारकसाकल्य' रूप कारण को ही प्रमाण कहना उपचार (व्यवहार) का कथन है। मैंने दीपक से जाना, आँख से जाना, धूम से जाना इत्यादि लोक व्यवहार भी औपचारिक है वास्तविक नहीं। जैसे 'यह पुरुष मेरी आँखें हैं'-ऐसा कहना भी उपचार है क्योंकि इनके द्वारा होने वाली प्रमीति (जानकारी) के प्रति ज्ञान के द्वारा व्यवधान पड़ता ही है और ज्ञान व्यवधान के बिना ही वस्तु को जानता है। पारमार्थिक वस्तु व्यवस्था कोई उपचार से तो होती नहीं है जैसे नड्वलोदकं पादरोगः' घास से युक्त जल नड्वलोदक कहलाता है उसमें पैर देने से 'नारु' नामक पाद रोग होता है। वहाँ पानी को भी रोग कहना उपचार मात्र है। नड्वलोदक पादरोग है ऐसा कहने मात्र से जल ही रोग नहीं बन जाता है। अतः पदार्थ की ज्ञप्ति में साधकतम तो ज्ञान ही है; कारकसाकल्य आदि मात्र उपचार से साधकतम हैं। प्रमेयकमलमार्तण्डसारः: 15
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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