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1. प्रमाणत्वान्यथानुपपत्तेरित्ययमत्र हेतुर्दृष्टव्यः। विशेषणं हि व्यवच्छेदफलं भवति। बताने वाला, संशय-विपर्यय-अनध्यवसाय से रहित निश्चयात्मक ज्ञान प्रमाण है।
1. यहाँ पर 'प्रमाण की अन्यथानुपपत्ति' ऐसा हेतु देखना चाहिए विशेषण का फल होता है-'विशेष्य को अन्य से अलग करना'।
यहाँ अन्यमतों के लक्षण का परिहार करने के लिए प्रमाण के साथ स्व, अपूर्व, अर्थ, व्यवसायात्मक और ज्ञान- ये पाँच विशेषण लगे हैं।
_ 'स्व' विशेषण के द्वारा ज्ञान को सर्वथा परोक्ष मानने वाले मीमांसक का, ज्ञानान्तर प्रत्यक्ष मानने वाले योग और अस्वसंवेदन ज्ञानवादी सांख्यों की मान्यता का निराकरण किया गया है जो ऐसा मानतें हैं कि ज्ञान स्वयं को नहीं जानता है-अस्वसंवेदी होता है।
'अपूर्व' विशेषण के द्वारा गृहीतग्राही धारावाहिक ज्ञान की प्रमाणता का निराकरण किया गया है।
'अर्थ' विशेषण से बाह्य पदार्थों की सत्ता न मानने वाले विज्ञानाद्वैतवादी, पुरुषाद्वैतवादी और शून्यैकान्तवादियों का निराकरण किया गया है।
'व्यवसायात्मक' (निश्चयात्मक) विशेषण का प्रयोग उन बौद्धों के निराकरण के लिए किया गया है जो ज्ञान को प्रमाण मानकर भी निर्विकल्पक प्रत्यक्ष ज्ञान को ही प्रमाण मानते हैं। इसी विशेषण से समारोप की प्रमाणता का भी निराकरण होता है।
'समारोप' का अर्थ है संशय-विपर्यय तथा अनध्यवसाय का समूह। 'ज्ञान' विशेषण का प्रयोग सन्निकर्ष (नैयायिक-वैशेषिक), कारकसाकल्य (जरन्नैयायिक जयन्तभट्ट), इन्द्रियवृत्ति (सांख्य); ज्ञातृव्यापार (मीमांसक) आदि अज्ञानरूप वस्तु को ही प्रमाण मानने वालों का निराकरण करने के लिए किया गया है।
प्रमेयकमलमार्तण्डसारः: 13