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11. हिताऽहित्तव्यवस्था चोपकारकत्वापकारकत्वाभ्यां प्रसिद्धेति । तदिव स्वपरप्रमेयस्वरूपप्रतिभासिप्रमाणमिवाभासत इति तदाभासम् सकलमतसम्मताऽवबुद्ध्यक्षणिकाचेकान्ततत्त्वज्ञानं सन्निकर्षाऽविकल्पकज्ञानाऽप्रत्यक्षज्ञानज्ञानान्तरप्रत्यक्षज्ञानाऽ नाप्तप्रणीताऽऽगमाऽविनाभावविकललिङ्गनिबन्धनाऽभिनिबोधादिक संशयविपर्यासानध्यवसायज्ञानं च तस्माद् विपर्ययोऽभिलषितार्थस्य स्वर्गापवर्गादेरनवद्यतत्साधनस्य वैहिकसुखदुःखादिसाधनस्य वा सम्प्राप्तिज्ञप्तिलक्षणसमीचीनसिद्धयभावः । प्रमाणस्य प्रथमतोऽभिधानं प्रधानत्वात्। न चैतदसिद्धम्
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ज्ञान असत्य नहीं है। क्योंकि दोनों ही ज्ञान हेय का परिहार और उपादान की प्राप्ति करने में समर्थ है, जैसे प्रसिद्ध सत्यज्ञान समर्थ है।
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11. हित और अहित की व्यवस्था या व्याख्या लक्षण तो उपकारक और अपकारक की अपेक्षा से होता है, जो उपकारक हो वह हित और जो अपकारक हो वह अहित कहलाता है, उसके समान अर्थात् स्व पर प्रमेय का स्वरूप प्रतिभासित करने वाले प्रमाण के जैसा ही जो लोग (किन्तु हो न) वह तदाभास कहलाता है अर्थात् प्रमाणाभास कहलाता है। वह प्रमाणाभास अनेक प्रकार का है। जैसे विनयवादी (सभी के मत को मानने वाले), सर्वथा नित्य, सर्वथा क्षणिक इत्यादि एकान्तवादियों का तत्त्वज्ञान आप्त लक्षण से रहित पुरुषों द्वारा रचित आगम, सन्निकर्ष, निर्विकल्पज्ञान, अप्रत्यक्षज्ञान, ज्ञानान्तरवेद्यज्ञान, अविनाभावरहित अनुमानज्ञान, उपमादिज्ञान, संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय - ये सभी ज्ञान प्रमाणाभास कहलाते हैं, क्योंकि इन ज्ञानों से विपर्यय होता है। कहने का तात्पर्य अपने इच्छित स्वर्ग, मोक्ष का निर्दोष बोध नहीं होता है तथा इस लोक में सुख-दुःख के साधनभूत पदार्थों की सत्यज्ञान प्राप्ति आदि सिद्धियाँ भी नहीं होती हैं, श्लोक में 'प्रमाण' पद का ग्रहण पहले हुआ है क्योंकि वह मुख्य है, उसमें प्रधानता असिद्ध भी नहीं है।
12. सम्यग्ज्ञान मोक्ष का साधन होने से सभी पुरुषार्थों में प्रमेयकमलमार्त्तण्डसार :: 9