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________________ 9. सिद्धिरसतः प्रादुर्भावोऽभिलषितप्राप्ति वज्ञप्तिश्चोच्यते। तत्र ज्ञापकप्रकरणाद् असतः प्रादुर्भावलक्षणा सिद्धिर्नेह गृह्यते। समीचीना सिद्धिः संसिद्धिरर्थस्य संसिद्धिः 'अर्थसंसिद्धिः' इति। अनेन कारणान्तराहितविपर्यासादिज्ञाननिबन्धनाऽर्थसिद्धिर्निरस्ता। 10. जातिप्रकृत्यादिभेदेनोपकारकार्थसिद्धिस्तु संगृहीता; तथाहिकेवलनिम्बलवणरसादावस्मदादीनां द्वेषबुद्धिविषये निम्बकीटोष्ट्रादीनां जात्याऽभिलाषबुद्धिरुपजायते अस्मदाद्यभिलाषविषये चन्दनादौ तु तेषां द्वेषः, तथा पित्तप्रकृतेरुष्णस्पर्श द्वेषो-वातप्रकृतेरभिलाषः शीतस्पर्श तु वातप्रकृतेर्द्वषो न पित्तप्रकृतेरिति। न चैतज्ज्ञानमसत्यमेवहिताऽहितप्राप्तिपरिहारसमर्थत्वात् प्रसिद्धसत्यज्ञानवत्। वस्तु की प्राप्ति होना अथवा पदार्थ का ज्ञान होना सिद्धि कहलाता है। यहाँ पर ज्ञापक का प्रकरण होने से असत् की उत्पत्ति वाला अर्थ नहीं लिया गया है। बल्कि शेष दो प्राप्ति और ज्ञप्ति अर्थ लिया गया है। समीचीन अर्थ सिद्धि को अर्थसंसिद्धि कहते हैं। इसमें यहाँ यह अर्थ भी गर्भित है कि जो विपरीत ज्ञान कराने वाले अन्य कारण हैं उनसे अर्थ सिद्धि नहीं होती है। 10. जाति प्रकृति आदि के भेद से होने वाले उपकारक पदार्थ की सिद्धि का भी यहाँ ग्रहण हो गया है। जिस प्रकार अकेले अकेले नीम, नमक आदि रसवाले पदार्थों में हम लोगों को द्वेषबुद्धि होती है, परन्तु उन्हीं विषयों में नीम के कीड़े तथा ऊँट आदि को जाति के कारण ही उन्हीं पदार्थों की अभिलाषा होती है। कहने का तात्पर्य नीम में हमको हेयबुद्धि होती है और ऊँट आदि को उपादेय बुद्धि होती है। ऐसा विरोध होकर भी दोनों ही ज्ञान जाति की अपेक्षा सत्य ही कहे जायेंगे। इसी प्रकार चन्दन आदि पदार्थों में ऊँट वगैरह को द्वेष (हेय) बुद्धि होती है, इसी प्रकार पित्तदोष वाले पुरुष को उष्ण स्पर्श में द्वेष (हेय) और वातदोष वाले पुरुष को उसी में उपादेय-अभिलाषा होती है। ठीक इसके विपरीत शीतस्पर्श में पित्तवाले को उपादेय और वात वाले को हेय बुद्धि होती है। ये दोनों ही 8:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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