________________ चक्षुसन्निकर्षवाद - नेत्र पदार्थों को छूकर ही जानते हैं, सभी इन्द्रियों के समान यह भी इन्द्रिय है अतः नेत्र भी पदार्थ का स्पर्श करके उसको जानते हैं, यह चक्षुसन्निकर्षवाद कहलाता है, यह मान्यता नैयायिक की है। चित्रज्ञान - अनेक आकार जिसमें प्रतीत हो रहे उस ज्ञान को चित्रज्ञान कहते हैं। चित्राद्वैत ज्ञान में जो अनेक आकार प्रतिभासित होते हैं वे ही सत्य हैं, बाह्य में दिखायी देने वाले अनेक आकार वाले पदार्थ तो मात्र काल्पनिक हैं। ऐसा बौद्धों के चार सम्प्रदायों में से योगाचार बौद्ध का कहना है। यही चित्राद्वैत कहलाता है। चित्र-नाना आकारयुक्त एक अद्वैत रूप ज्ञान मात्र तत्त्व है और कुछ भी नहीं है-ऐसा मानना चित्राद्वैतवाद है। चैतन्य प्रभव प्राणादि- चैतन्य के निमित्त से होने वाले श्वासादिप्राण। जन्य-जनक उत्पन्न करने योग्य पदार्थ को जन्य और उत्पन्न करने वाले को जनक कहते हैं। जाति न्यायग्रन्थ में सामान्य को या सामान्यधर्म को जाति कहते हैं। जन्य का नाम भी जाति है, तथा माता पक्ष की सन्तान परम्परा को जाति कहते हैं। जैमिनि - मीमांसक मत के मान्य ग्रन्थकार। 344:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः