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________________ 7/1 त्वसत्त्वस्य, तृतीये क्रमार्पितयोः सत्त्वासत्त्वयोः, चतुर्थे त्ववक्तव्यत्वस्य, पञ्चमे सत्त्वसहितस्य, षष्ठे पुनरसत्त्वोपेतस्य, सप्तमे क्रमे क्रमवत्तदुभययुक्तस्य सकलजनैः सुप्रतीतत्वात्। 24. ननु चावक्तव्यत्वस्य धर्मान्तरत्वे वस्तुनि वक्तव्यत्वस्याष्टमस्य धर्मान्तरस्य भावात्कथं सप्तविध एव धर्मः सप्तभङ्गीविषयः स्यात्? इत्यप्यपेशलम्; सत्त्वादिभिरभिधीयमानतया वक्तव्यत्त्वस्य प्रसिद्धः, सामान्येन वक्तव्यत्वस्यापि विशेषेण वक्तव्यतायामवस्थानात्। भवतु वा वक्तव्यत्वा है, और अन्तिम सप्तभङ्ग में (स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य) क्रम से उभय युक्त अवक्तव्य प्रतिभासित होता है। इस प्रकार यह सर्वजन प्रसिद्ध प्रतीति है अर्थात् सप्तभङ्गी के ज्ञाता इन भङ्गों में इसी तरह प्रतीति होना स्वीकार करते हैं। 24. प्रश्न- यदि अवक्तव्य को वस्तु में पृथक् धर्मरूप स्वीकार किया जाता है तो वक्तव्यत्व नाम का आठवां धर्मान्तर भी वस्तु में हो सकता है फिर वस्तु में सप्तभङ्गी के विषयभूत सात प्रकार के ही धर्म हैं ऐसा किस प्रकार सिद्ध हो सकेगा? समाधान- यह शंका व्यर्थ की है, जब वस्तु सत्त्व आदि धर्मों द्वारा कहने में आने से वक्तव्य हो रही है तो वक्तव्य की सिद्धि तो हो चुकती है। सामान्य से वक्तव्यपने का भी विशेष से वक्तव्यपना बन जाता है। अथवा दूसरी तरह से वक्तव्य और अवक्तव्य नाम के दो पृथक् धर्म मानते हैं तब सत्त्व और असत्त्व के समान इन वक्तव्य और अवक्तव्य को क्रम से विधि और प्रतिषेध करके अन्य सप्तभङ्गी की प्रवृत्ति हो जायेगी अतः सप्तभङ्गी के विषयभूत सात प्रकार के धर्मों का नियम विघटित नहीं होता अर्थात् आठवां धर्म मानने आदि का प्रसङ्ग नहीं आता। इस प्रकार एक वस्तु में सात प्रकार के धर्म ही सिद्ध होते हैं और उनके सिद्ध होने पर उनके विषय रूप संशय सात प्रकार का, उसके निमित्त से होने वाली जिज्ञासा सात प्रकार की एवं उसके निमित्त से होने वाला प्रश्न सात प्रकार का सिद्ध हो जाता है। प्रमेयकमलमार्तण्डसारः: 327
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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