________________ 7/1 धर्मान्तरत्वमप्रातीतिक व्याख्यानम्। कथमेवं प्रथमचतुर्थयोर्द्वितीयचतुर्थयोस्तृतीयचतुर्थयोश्च सहितयोर्धर्मान्तरत्वं स्यादिति चेत्? चतुर्थेऽवक्तव्यत्वधर्मे सत्त्वासत्त्वयोरपरामर्शात्। न खलु सहार्पितयोस्तयोरवक्तव्यशब्देनाभिधानम्। किं तर्हि? तथार्पितयोस्तयोः सर्वथा वक्तुमशक्तेरवक्तव्यत्त्वस्य धर्मान्तरस्य तेन प्रतिपादनमिष्यते। न च तेन सहितस्य सत्त्वस्यासत्त्वस्योभयस्य वाऽप्रतीतिधर्मान्तरत्वासिद्धिर्वा; प्रथम भने सत्त्वस्य प्रधानभावेन प्रतीतेः, द्वितीये धर्मान्तरपना सिद्ध नहीं होता ऐसा निश्चय करना चाहिए। प्रश्न- यदि इस रीति से धर्मान्तरपना सम्भव नहीं है तो प्रथम के साथ चतुर्थ का संयोग करने पर स्यात् अस्ति अवक्तव्य एवं द्वितीय के साथ चतुर्थ का संयोग कर स्यात् नास्ति अवक्तव्य, तृतीय के साथ चतुर्थ का संयोग कर स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य को धर्मान्तरपना कैसे माना जा सकता है? उत्तर- अवक्तव्य नाम के चौथे धर्म में सत्त्व और असत्त्व का परामर्श नहीं होने से उक्त धर्मान्तरपना बन जाता है। युगपत् अर्पित उन सत्त्व असत्त्व का अवक्तव्य शब्द द्वारा कथन नहीं होता अपितु उक्त रीति से अर्पित हुए उन सत्त्व असत्त्व को सर्वथा कहना अशक्य है इस रूप अवक्तव्य नामा जो धर्मान्तर है उसका अवक्तव्य शब्द द्वारा प्रतिपादन होता है। उस अवक्तव्य सहित सत्त्व की या असत्त्व अथवा उभय की प्रतीति नहीं होती हो अथवा यह अवक्तव्य पृथक् धर्मरूप सिद्धि नहीं होता हो वह भी बात नहीं है। देखिये-प्रथम भंग में (स्यात् अस्ति) सत्त्वप्रधान भाव से प्रतीत होता है, द्वितीय भंग से (स्यात् नास्ति) असत्व प्रधान भाव से प्रतीत होता है, तृतीय भङ्ग में (स्यात् अस्ति नास्ति) क्रम से अर्पित सत्त्व असत्त्व प्रधानता से प्रतीत होता है, चतुर्थ भङ्ग में (स्यात् अवक्तव्य) अवक्तव्य धर्म प्रधानता से प्रतीत होता है, पञ्चम भङ्ग में (स्यात् अस्ति अवक्तव्य) सत्त्व सहित अवक्तव्य मुख्यता से प्रतिभासित होता है, षष्ठ भङ्ग में (स्यात् नास्ति अवक्तव्य) असत्त्व सहित अवक्तव्य मुख्यता से ज्ञात होता 326:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः