________________ 7/1 23. ननु च प्रथमद्वितीयधर्मवत् प्रथमतृतीयादिधर्माणां क्रमेतरार्पितानां धर्मान्तरत्वसिद्धेर्न सप्तविधधर्मनियमः सिद्धयेत्: इत्यप्यसुन्दरम् क्रमार्पितयोः प्रथमतृतीयधर्मयोः धर्मान्तरत्वेनाऽप्रतीतेः, सत्त्वद्वयस्यासम्भवाद्विवक्षितस्वरूपादिना सत्त्वस्यैकत्वात्। तदन्यस्वरूपादिना सत्त्वस्य द्वितीयस्य सम्भवे विशेषादेशात् तत्प्रतिपक्षभूतासत्त्वस्याप्यपरस्य सम्भवादपरधर्मसप्तकसिद्धि:(द्धेः) सप्तभनयन्तरसिद्धितो न कश्चिदुपालम्भः। एतेन द्वितीयतृतीयधर्मयोः क्रमाप्तियो प्रवृत्ति आदि का व्यवहार होता है। यदि अन्यत्र शब्दादि से होने वाला व्यवहार भी निर्विषयी माना जायेगा तो सम्पूर्ण प्रत्यक्षादि से होने वाला व्यवहार भी लुप्त होगा और फिर किसी के भी इष्ट तत्त्व की व्यवस्था नहीं हो सकेगी। 23. प्रश्न- प्रथम (अस्ति) और द्वितीय (नास्ति) धर्म के समान प्रथम और तृतीय आदि धर्मों को क्रम तथा अक्रम से अर्पित करने पर अन्य-अन्य धर्म भी बन सकते हैं अतः सात ही प्रकार का धर्म है ऐसा नियम असिद्ध है। उत्तर- यह कथन असत् है, क्रम से अर्पित प्रथम और तृतीय धर्म धर्मान्तररूप अर्थात् पृथक् धर्म रूप प्रतीत नहीं होते। एक ही वस्तु में दो सत्त्व धर्म असम्भव हैं। केवल विवक्षित स्वरूपादि की अपेक्षा एक ही सत्त्वधर्म सम्भव है। अर्थात् विवक्षित एक मनुष्य वस्तु में स्वद्रव्य क्षेत्र काल और भाव की अपेक्षा एक ही सत्त्व या अस्तित्त्व है दूसरा सत्त्व नहीं है। यदि उससे अन्य स्वरूपादि की अपेक्षा दूसरा सत्त्व सम्भावित किया जाय अर्थात् उस मनुष्य पर्यायभूत वस्तु से अन्य जो देवादिपर्यायभूत वस्तु है उसके स्वद्रव्यादि की अपेक्षा दूसरा सत्त्व पर्याय विशेष के आदेश से सम्भावित किया जाय तो उस द्वितीय सत्त्व के प्रतिपक्षभूत जो असत्त्व है वह भी दूसरा सम्भावित होगा और इस तरह एक अपरधर्मवाली न्यारी सप्तभङ्गी सिद्ध हो जायेगी, इस प्रकार की सप्तभंगान्तर मानने में कोई दोष या उलाहना नहीं है। जैसे प्रथम और तृतीय धर्म को धर्मान्तरपना सिद्ध नहीं होता और न सप्तभंग से अधिक भंग सिद्ध होते हैं वैसे ही द्वितीय और तृतीय धर्म को क्रम से अर्पित करने में प्रमेयकमलमार्तण्डसारः: 325