________________ 7/1 वक्तव्यत्वयोर्धर्मयोः प्रसिद्धिः तथाप्याभ्यां विधिप्रतिषेधकल्पनाविषयाभ्यां सत्त्वासत्त्वाभ्यामिव सप्तभङ्गयन्तरस्य प्रवृत्तेर्न तद्विषयसप्तविधधर्मनियमव्याघातः, यतस्तद्विषय: संशयः सप्तधैव न स्यात् तद्धेतुर्जिज्ञासा वा तन्निमित्त: प्रश्नो वा वस्तुन्येकत्र सप्तविधवाक्यनियमहेतुः। इत्युपपन्नेयम्-प्रश्नवशादेकवस्तुन्यविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभङ्गी। 'अविरोधेन' इत्यभिधानात् प्रत्यक्षादिविरुद्धविधिप्रतिषेधकल्पनायाः सप्तभङ्गीरूपता प्रत्युक्ता, 'एकवस्तुनि' इत्यभिधानाच्च अनेकवस्त्वाश्रयविधिप्रतिषेधकल्पनाया इति। परीक्षामुखमादर्श हेयोपादेयतत्त्वयोः संविदे मादृशो बाल: परीक्षादक्षवद्व्यधाम् // 1 // इसलिए एक वस्तु में सात प्रकार के वाक्यों का नियम है। और इसी प्रकार 'प्रश्नवशात् एकवस्तुनि अविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभङ्गी' प्रश्न के वश से एक वस्तु में विरोध न करते हुये विधि और प्रतिषेध की कल्पना करना सप्तभङ्गी है। यह सप्तभङ्गी का लक्षण निर्दोष सिद्ध हुआ। सप्तभङ्गी के लक्षण में अविरोधेन-विरोध नहीं करते हुए यह पद है उससे प्रत्यक्षादि प्रमाण से बाधित या विरुद्ध जो विधि और प्रतिषेध की कल्पना है वह सप्तभङ्गी नहीं कहलाती है। एक वस्तुनि-एक वस्तु में इस पद से अनेक पृथक्-पृथक् वस्तुओं का आश्रय लेकर विधि और प्रतिषेध की कल्पना करना मना होता है अर्थात् एक ही वस्तु में विधि आदि को लेकर सप्तभंग किये जाते हैं अनेक वस्तुओं का आश्रय लेकर नहीं। अब श्री माणिक्यनन्दी आचार्य अपने द्वारा प्रारम्भ किया गया जो परीक्षामुख ग्रन्थ है उसके निर्वहन की सूचना एवं लघुता करते हुए अन्तिम श्लोक द्वारा उपसंहार करते हैं परीक्षामुखमादर्श हेयोपादेयतत्त्वयोः। संविदे मादृशो बालः परीक्षादक्षवद्व्यधाम् // 1 // श्लोकार्थ- हेय और उपादेय तत्त्व के ज्ञान के लिए आदर्श 328:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः