________________ 7/1 विशेषात्मकत्वसम्भवात्। न चास्यैवं नैगमत्वानुषङ्गः; सङ्ग्रहविषयप्रविभागपरत्वात्, नैगमस्य तु गुणप्रधानभूतोभयविषयत्वात्। यः पुनः कल्पनारोपितद्रव्यपर्यायप्रविभागमभिप्रेति स व्यवहाराभासः, प्रमाणबाधितत्वात्। न हि कल्पनारोपित एव द्रव्यादिप्रविभागः; स्वार्थक्रियाहेतुत्वाभावप्रसङ्गाद्गगनाम्भोजवत्। व्यवहारस्य चाऽसत्यत्वे तदानुकूल्येन प्रमाणानां प्रमाणता न स्यात्। अन्यथा स्वप्नादिविभ्रमानुकूल्येनापि तेषां तत्प्रसङ्गः। उक्तं च व्यवहारानुकूल्यात्तु प्रमाणानां प्रमाणता। नान्यथा बाध्यमानानां ज्ञानानां तत्प्रसङ्गतः।।5 इति। करता है वह व्यवहाराभास है क्योंकि वह प्रमाण बाधित है। द्रव्यादि का विभाग काल्पनिक मात्र नहीं है यदि ऐसा मानें तो अर्थ क्रिया का अभाव होगा, जैसे कि गगन पुष्प में अर्थ क्रिया नहीं होती। तथा द्रव्य पर्याय का विभाग परक इस व्यवहार को असत्य मानने पर उसके अनुकूलता से आने वाली प्रमाणों की प्रमाणता का भी भंग हो जाएगा। तथा द्रव्यादि का विभाग सर्वथा कल्पना मात्र है और उसका विषय करने वाले व्यवहार द्वारा प्रमाणों की प्रमाणता होती है-ऐसा मानें तो स्वप्न आदि का विभ्रमरूप विभाग परक ज्ञान से भी प्रमाणों की प्रमाणता होने लगेगी। कहा भी है व्यवहार के अनुकूलता से प्रमाणों की प्रमाणता सिद्ध होती है, व्यवहार की अनुकूलता का जहाँ अभाव है वहाँ प्रमाणता सिद्ध नहीं होती, यदि ऐसा न माने तो बाधित ज्ञानों में प्रमाणता का प्रसंग आयेगा।।1।। कहने का तात्पर्य यह है कि- पदार्थ द्रव्य पर्यायात्मक है। द्रव्य और पर्याय में सर्वथा भेद या सर्वथा अभेद मानना असत् है। जो प्रवादी सर्वथा अभेद मानकर उनमें लोक व्यवहारार्थ कल्पना मात्र से विभाग करते हैं उनके यहाँ अर्थ क्रिया का अभाव होगा अर्थात् यदि द्रव्य से पर्याय सर्वथा अभिन्न है तो पर्याय का जो कार्य [अर्थ क्रिया] दृष्टिगोचर 25. लघीयस्त्रय कारिका 70 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः: 309