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________________ 7/1 सामान्यविशेषाणां सर्वथार्थान्तरत्वाभिप्रायोऽनन्तरत्वाभिप्रायो वाऽपरसङ्घहाभासः, प्रतीतिविरोधादिति। 4. सङ्ग्रहगृहीतार्थानां विधिपूर्वकमवहरणं विभजनं भेदेन प्ररूपणं व्यवहारः। परसंग्रहेण हि सद्धर्माधारतया सर्वमेकत्वेन 'सत्' इति संगृहीतम्। व्यवहारस्तु तद्विभागमभिप्रैति। यत्सत्तद्रव्यं पर्यायो वा। तथैवापरः सङ्ग्रहः सर्वद्रव्याणि 'द्रव्यम्' इति, सर्व पर्यायांश्च 'पर्यायः' इति संगृह्णाति। व्यवहारस्तु तद्विभागमभिप्रैति-यद्रव्यं तज्जीवादि षड्विधम्, यः पर्यायः स द्विविधः सह भावी क्रमभावी च। इत्यपरसङ्ग हव्यवहारप्रपञ्च : प्रागृजुसूत्रात्परसङ्ग्रहादुत्तरः प्रतिपत्तव्यः, सर्वस्य वस्तुनः कथञ्चित्सामान्य सर्वथा अभिन्न रूप सामान्य विशेषों की प्रतीति नहीं होती। व्यवहार नय का लक्षण संग्रह नय द्वारा ग्रहण किये हुए पदार्थों में विधिपूर्वक विभाग करना-भेद रूप से प्ररूपण करना व्यवहार नय है, पर संग्रहनय से सत् धर्म [स्वभाव] के आधार से सबको एक रूप से सत् है ऐसा ग्रहण किया था अब उसमें व्यवहार नय विभाग चाहता है- जो सत् है वह द्रव्य है अथवा पर्याय है, इत्यादि विभाजन करता है। तथा अपर संग्रहनय ने सब द्रव्यों को द्रव्य पद से संगृहीत किया अथवा सब पर्यायों को पर्याय पद से संगृहीत किया था उसमें व्यवहार विभाग मानता है कि जो द्रव्य है वह जीव आदि रूप छह प्रकार का है, जो पर्याय है वह दो प्रकार की है सहभावी और क्रमभावी। इस प्रकार से द्रव्य और पर्याय का विभाग विस्तार करने से इसको नैगमनयत्व के प्रसंग होने की आशंका भी नहीं करना, क्योंकि व्यवहार नय संग्रह के विषय में विभाग करता है किन्तु नैगम नय तो गौण मुख्यता से उभय को [सामान्य विशेष या द्रव्य पर्याय] विषय करता है। व्यवहाराभास का लक्षण जो केवल कल्पनामात्र से आरोपित द्रव्य पर्यायों में विभाग 308:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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