________________ 6/73 यथा क्रियावद्रव्यं निष्क्रियं च कालभेदे सति। तथाऽवसितौ विचार न प्रयोजयतः; निश्चयोत्तरकालं विवादाभावादित्यनवसितौ तौ निर्दिष्टौ। एवंविशेषणौ धर्मों पक्षप्रतिपक्षौ। तयोः परिग्रह इत्थंभावनियमः ‘एवंधर्मायं धर्मी नैवंधर्मा' इति च। ततः प्रमाणतर्कसाधनोपलम्भत्वविशेषणस्य पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहस्य जल्पवितण्डयोरसम्भवात् सिद्धं वादस्यैव तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थत्वं लाभपूजाख्यातिवत्। प्रयोजन नहीं रहता, जैसे द्रव्य क्रियावान होता है और गुणवान भी होता है तब क्रिया और गुण का विरोध नहीं होने से यहाँ विचार की जरूरत नहीं। वे दो धर्म एक काल में विवक्षित हो तो विचार होगा, भिन्नकाल में विचार की आवश्यकता नहीं रहती, भिन्नकाल में तो वे धर्म एकाधार में रह सकते हैं, जैसे (यौग मत की अपेक्षा) काल भेद से द्रव्य में सक्रियत्व और निष्क्रियत्व रह जाता है। जिन धर्मों का निश्चय हो चुका है उनमें विचार करने का प्रयोजन नहीं रहता, क्योंकि निश्चय होने के बाद विवाद नहीं होता अत: अनवसित-अनिश्चित धर्मों के विषय में विचार करने के लिये पक्ष प्रतिपक्ष स्थापित किये जाते हैं। एक कहता है कि इस प्रकार के धर्म से युक्त ही धर्मी होता है तो दूसरा व्यक्ति प्रतिवादी कहता है कि नहीं, इस प्रकार के धर्म से युक्त नहीं होता इत्यादि। इस प्रकार प्रमाण, तर्क साधन, उपलम्भादि विशेषण वाले पक्ष प्रतिपक्ष का ग्रहण जल्प और वितंडा में नहीं होता ऐसा सिद्ध होता है केवल वाद में ही इस प्रकार के विशेषण वाले पक्षादि होते हैं और वह वाद ही तत्त्वाध्यवसाय के संरक्षण के लिए होता है [किया जाता है] ऐसा सिद्ध हुआ, जिस प्रकार वाद से ख्याति पूजा लाभ की प्राप्ति होती है उसी प्रकार तत्त्वाध्यवसाय का रक्षण भी होता है ऐसा मानना चाहिये। इस संपूर्ण चर्चा को यहाँ हम इस प्रकार समझने का प्रयास करेंगे। जैसे- यौग का कहना है कि वाद में अपने-अपने तत्त्व के 298:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः