________________ 6/73 ___71. पक्षप्रतिपक्षौ च वस्तुधर्मवेकाधिकरणौ विरुद्धावेककालावनवसितौ। वस्तुधर्माविति वस्तुविशेषौ वस्तुनः। सामान्येनाधिगत्वाद्विशेषतोऽनधिगतत्वाच्च विशेषावगमनिमित्तो विचारः। एकाधिकरणाविति, नानाधिकरणौ विचारं न प्रयोजयत उभयो:प्रमाणोपपत्तेः; तद्यथा-अनित्या बुद्धिर्नित्य आत्मेति। अविरुद्धावप्येवं विचारं न प्रयोजयतः, तद्यथा-क्रियावद्द्रव्यं गुणवच्चेति। एककालाविति, भिन्नकालयोर्विचाराप्रयोजकत्वं प्रमाणोपपत्तेः, अन्तर है कि जल्प में तो पक्ष प्रतिपक्ष दोनों रहते हैं किन्तु वितंडा में प्रतिपक्ष नहीं रहता, इस प्रकार आप योग के यहाँ जल्प और वितंडा के विषय में व्याख्यान पाया जाता है। 71. अब यहाँ पर यह देखना है कि पक्ष और प्रतिपक्ष किसे कहते हैं, "वस्तुधर्मों, एकाधिकरणौ, विरुद्धौ, एक कालौ, अनवसितौ पक्ष- प्रतिपक्षौ" वस्तु के धर्म हो, एक अधिकरणभूत हो, विरुद्ध हो, एक काल की अपेक्षा लिये हो और अनिश्चित हो वे पक्ष प्रतिपक्ष कहलाते इसको स्पष्ट करते हैं-वस्तु के विशेष धर्म पक्ष-प्रतिपक्ष बनाये जाते हैं क्योंकि सामान्य से जो जाना है और विशेष रूप से नहीं जाना है उसी विशेष को जानने के लिये विचार [वाद विवाद] प्रवृत्त होता है, तथा वे दो वस्तु धर्म एक ही अधिकरण में विवक्षित हो तो विचार चलता है, नाना अधिकरण में स्थित धर्मों के विषय में विचार की जरूरत ही नहीं, क्योंकि नाना अधिकरण में तो वे प्रमाण सिद्ध ही रहते हैं जैसे बुद्धि अनित्य है और आत्मा नित्य है ऐसा किसी ने कहा तो इसमें विचार-विवाद नहीं होता वे नित्य अनित्य तो अपने अपने स्थान में हैं। किन्तु जहाँ एक ही आधार में दो विशेषों के विषय में विचार चलता हो कि इन दोनों में से यहाँ कौन होगा? जैसे उदाहरण के रूप में शब्द में एक व्यक्ति तो नित्य धर्म मानता है और एक व्यक्ति अनित्य धर्म, तब विचार प्रवृत्त होगा, पक्ष प्रतिपक्ष रखा जायेगा, एक कहेगा शब्द में नित्यत्व और दूसरा कहेगा शब्द में अनित्यत्व है। यदि वे दो धर्म परस्पर में विरुद्ध न हो तो भी विचार का कोई प्रमेयकमलमार्तण्डसार:: 297