________________ 6/73 निश्चय का रक्षण नहीं हो सकता। तत्त्व का संरक्षण तो जल्प और वितंडा से होता है। तब आचार्य प्रभाचन्द्र उनको समझा रहे हैं कि आपके यहाँ जो वाद आदि का लक्षण किया है उससे सिद्ध होता है कि वाद से ही तत्त्व संरक्षण होता है, जल्प और वितंडा से नहीं, वितंडा में तो प्रतिपक्ष की स्थापना ही नहीं होती, तथा इन दोनों में सिद्धान्त अविरुद्धता भी नहीं, वाद में ऐसा नहीं होता, वाद करने वाले पुरुष अपने-अपने पक्ष की स्थापना करते हैं तथा उनका वाद प्रमाण, तर्क आदि से युक्त होता है एवं सिद्धान्त से अविरुद्ध भी होता है। सभा के मध्य में वादी प्रतिवादी जो अपना-अपना पक्ष उपस्थित करते हैं उसके विषय में चर्चा करते हुए आचार्य प्रभाचन्द्र ने कहा है कि तब तक ही पदार्थ के गुण धर्म के बारे में विवाद या मतभेद होता है जब तक अपनी अपनी मान्यता सिद्ध करने के लिये सभापति के समक्ष वादी प्रतिवादी उपस्थित होकर उस पदार्थ के गुण धर्म के विषय में अपना अपना पक्ष रखते हैं। जैसे एक पुरुष को शब्द को नित्य सिद्ध करना है और एक पुरुष को उसी शब्द को अनित्य सिद्ध करना है, पक्ष प्रतिपक्ष दोनों का अधिकरण वही शब्द है। नित्य और अनित्य परस्पर विरुद्ध हैं इसीलिये उन पुरुषों के मध्य में विवाद खड़ा हुआ है। यदि अविरुद्ध धर्म होते तो विवाद या विचार करने की जरूरत नहीं होती, तथा ये दोनों धर्म नित्य अनित्य एक साथ एक वस्तु मानने की बात आती है तब विवाद पड़ता है तथा उन धर्मों का एक वस्तु में यदि पहले से निश्चय हो चुका है तो भी विवाद नहीं होता। अनिश्चित गुण धर्म में ही विवाद होता है। इस प्रकार पक्ष प्रतिपक्ष का स्वरूप भली प्रकार से जानकर ही वादी प्रतिवादी सभा में उपस्थित होते हैं और ऐसे पक्ष प्रतिपक्ष आदि के विषय में जानकर पुरुष ही वाद करके तत्त्व निश्चय का संरक्षण कर सकते हैं, जल्प और वितंडा में यह सब सम्भव नहीं, क्योंकि न इनमें इतने सुनिश्चित नियम रहते हैं और न इनको करने वाले पुरुष ऐसी क्षमता को घेरते हैं। इस प्रकार प्रभाचन्द्राचार्य ने उन्हीं योग के सिद्धान्त प्रमेयकमलमार्तण्डसार:: 299