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________________ 7/1 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः 315 विभिन्नकालादिशब्दत्वात् तथाविधान्यशब्दवत्। नन्वेवं लोकव्यवहारविरोधः स्यादिति चेत्; विरुध्यतामसौ तत्त्वं तु मीमांस्यते, न हि भेषजमातुरेच्छानुवर्ति। 13. नानार्थान्समेत्याभिमुख्येन रूढः समभिरूढः। शब्दनयो हि पर्यायशब्दभेदान्नार्थभेदमभिप्रैति कालादिभेदत एवार्थभेदाभिप्रायात्। अयं तु पर्यायभेदेनाप्यर्थभेदमभिप्रेति। तथाहि-'इन्द्रः शक्रः पुरन्दरः' इत्याद्याः शब्दा वैसे ही विश्वदृश्वा और भविता ये दो अतीत और आगामी काल में स्थित व्यक्ति के वाचक होने चाहिये, ऐसे ही कारक आदि में समझना। यहाँ पर कोई शंका करे कि इस तरह माने तो लोक व्यवहार में विरोध होगा? सो विरोध होने दो। यहाँ तो तत्त्व का विचार किया जा रहा है, तत्त्व व्यवस्था कोई लोकानुसार नहीं होती, यथा औषधि रोगी की इच्छानुसार नहीं होती है। समभिरूढ़नय का लक्षण नाना अर्थों का आश्रय लेकर मुख्यता से रूढ़ होना अर्थात् पर्यायभेद से पदार्थ में नानापन स्वीकारना समभिरूढ़नय कहलाता है। शब्दनय पर्यायवाची शब्दों के भिन्न होने पर भी पदार्थों में भेद नहीं मानता, वह तो काल कारक आदि का भेद होने पर ही पदार्थ में भेद करता है किन्तु यह समभिरूढ़नय पयार्यवाची शब्द के भिन्न होने पर ही अर्थ में भेद करता है। इसी बात को उदाहरण द्वारा बताते हैं- इन्द्रः शक्रः पुरन्दरः इत्यादि शब्द हैं इनमें लिंगादि का भेद न होने से अर्थात् एक पुल्लिंग स्वरूप होने से शब्द नय की अपेक्षा भेद नहीं है। ये सब एकार्थवाची हैं। किंतु समभिरूढ़ नय उक्त शब्द विभिन्न होने से उनका अर्थ भी विभिन्न स्वीकारता है जैसे कि वाजी और वारण ये दो शब्द होने से इनका अर्थ क्रमशः अश्व और हाथी है। मतलब यह है कि इस नय की दृष्टि में पर्यायवाची शब्द नहीं हो सकते। एक पदार्थ को अनेक नामों द्वारा कहना अशक्य है। यह तो जितने शब्द हैं उतने ही भिन्न अर्थवान् पदार्थ स्वीकार करेगा, शक और इन्द्र एक पदार्थ के वाचक नहीं हैं
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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